आफ़ताब शम्सी
ग़ज़ल 11
नज़्म 14
अशआर 8
जो साथ लाए थे घर से वो खो गया है कहीं
इरादा वर्ना हमारा भी वापसी का था
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तूफ़ान की ज़द में थे ख़यालों के सफ़ीने
मैं उल्टा समुंदर की तरफ़ भाग रहा था
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नाम अपना ही मैं सब से खड़ा पूछ रहा था
कुछ मेरी समझ में नहीं आया कि ये क्या था
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राह तकते जिस्म की मज्लिस में सदियाँ हो गईं
झाँक कर अंधे कुएँ में अब तो कोई बोल दे
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सभी हैं अपने मगर अजनबी से लगते हैं
ये ज़िंदगी है कि होटल में शब गुज़ारी है
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