अफ़ज़ल परवेज़
ग़ज़ल 8
नज़्म 1
अशआर 9
अलख जमाए धूनी रमाए ध्यान लगाए रहते हैं
प्यार हमारा मस्लक है हम प्रेम-गुरु के चेले हैं
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अपना घर शहर-ए-ख़मोशाँ सा है
कौन आएगा यहाँ शाम ढले
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तुम उन को सज़ा क्यूँ नहीं देते कि जिन्हों ने
मुजरिम का ज़मीर और सुकूँ लूट लिया है
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हर मुसाफ़िर तिरे कूचे को चला
उस तरफ़ छाँव घनी हो जैसे
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मैं तो अपनी जान पे खेल के प्यार की बाज़ी जीत गया
क़ातिल हार गए जो अब तक ख़ून के छींटे धोते हैं
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