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अहमद नदीम क़ासमी

1916 - 2006 | लाहौर, पाकिस्तान

पाकिस्तान के शीर्ष प्रगतिशील शायर/कहानीकारों में भी महत्वपूर्ण स्थान/सआदत हसन मंटो के समकालीन

पाकिस्तान के शीर्ष प्रगतिशील शायर/कहानीकारों में भी महत्वपूर्ण स्थान/सआदत हसन मंटो के समकालीन

अहमद नदीम क़ासमी की कहानियाँ

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परमेशर सिंह

बँटवारे के समय पाँच बरस का अख़्तर पाकिस्तान जाते एक समूह में अपनी माँ से बिछड़ जाता है और भारत में ही रह जाता है। सीमा के पास सिखों के एक गिरोह को वह मिलता है। उनमें से एक परमेश्वर सिंह उसे अपने बेटा करतार सिंह बनाकर घर ले आता है। करतार सिंह भी दंगे के दौरान कहीं खो गया है। अख़्तर के साथ परमेश्वर सिंह की बेटी और बीवी का रवैया अच्छा नहीं है। अख़्तर भी अपनी अम्मी के पास जाने की रट लगाए रखता है। एक रोज़ गाँव में बिछड़े लोगों को ले जाने के लिए फ़ौज की गाड़ी गाँव में आती है, तो परमेश्वर सिंह अख़्तर को छुपा देता है। लेकिन फिर ख़ुद ही उसे सैनिकों के कैंप के पास छोड़ जाता है, जहाँ सैनिक परमेश्वर पर गोली चला देता है और अख़्तर अम्मी के पास जाने के बजाए परमेश्वर के पास दौड़ा चला आता है।

बाबा नूर

‘इतिहास जंगे याद रखता है। उनमें शहीद होने वाले सैनिक। वह विजेताओं की गाथा गाता है और लाशों के ढ़ेर को भूला देता है।’ लाशों की उसी ढ़ेर में से एक बाबा नूर का बेटा है। बाबा नूर बिला नाग़ा पास के डाकख़ाने जाते हैं। इस पर छोटे बच्चे उनका मज़ाक उड़ाते हैं और बड़े उनका एहतराम करते हैं। बाबा नूर डाकख़ाने जा कर वहाँ मुंशी से पूछते हैं कि क्या उनके बेटे की कोई चिट्ठी आई है? मुंशी हर बार की तरह कहता है, नहीं। उसके जाने के बाद बैठे लोगों से मुंशी कहता है, मैंने उसे वह चिट्ठी पढ़कर सुनाई थी जिसमें ख़बर थी कि बाबा का बेटा बर्मा में बम के गोले का शिकार हो चुका है। जब से वो पागल सा हो गया है। मगर ख़ुदा की क़सम है दोस्तो, अगर आज के बाद वो फिर मेरे पास यही पूछने आया, तो मुझे भी पागल कर जाएगा।

कफ़न दफ़न

मियां सैफ़-उल-हक़ एक अच्छी और भरपूरी ज़िंदगी जी रहे थे कि अचानक एक रोज़ मस्जिद जाते वक़्त रास्ते में उन्हें लाश के साथ एक आदमी मिला। उस आदमी का नाम ग़फू़र है। ग़फू़र के पास इतने पैसे नहीं है कि वह अपनी मरी हुई बीवी का कफ़न-दफ़न कर सके। मियाँ साहब यह सोचकर उसकी सारी ज़िम्मेदारी उठाते हैं कि वह अपने बेटे हामिद का कफ़न-दफ़न कर रहे हैं। हामिद कई बरस पहले गुमनामी की मौत मर गए थे। ग़फू़र अपनी बीवी के कफ़न-दफ़न के बाद चला जाता है और काफ़ी अर्से बाद फिर वापस आता है और मियाँ साहब को कुछ रुपये देकर कहता है कि मुझे हमेशा ऐसा लगता है कि मेरी बीवी का कफ़न-दफ़न नहीं हुआ है। आपने उसे हामिद समझकर दफ़नाया था। मेरी बीवी तो ऐसी ही रह गई। मना करने पर भी वह मियाँ साहब को रुपये देता हुआ कहता है, मैंने तो आज ही अपनी कली को अपने हाथों से क़ब्र में उतारा है मियाँ जी।”

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