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ऐश मेरठी
अशआर 8
करूँ किस का गिला कहते हुए भी शर्म आती है
रक़ीब अफ़्सोस अपने ही पुराने आश्ना निकले
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उठाने वाले हमें बज़्म से ज़रा ये देख
कि टूटता है ग़रीबों का आसरा कैसे
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ये भी कोई ज़िंदगी में ज़िंदगी है हम-नफ़स
दिल कहीं है हम कहीं हैं और जानाना कहीं
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न मिलने पर भी उसे 'ऐश' प्यार करता हूँ
यूँ ऊँचा कर दिया मेआ'र-ए-ज़िंदगी मैं ने
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बढ़ती रही निगाह बहकते रहे क़दम
गुज़रा है इस तरह भी ज़माना शबाब का
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ग़ज़ल 9
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बाल-साहित्य1959
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