अजीत सिंह हसरत
ग़ज़ल 19
अशआर 20
बन सँवर कर रहा करो 'हसरत'
उस की पड़ जाए इक नज़र शायद
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बस एक ही बला है मोहब्बत कहें जिसे
वो पानियों में आग लगाती है आज भी
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हज़ार चुप सही पर उस का बोलता चेहरा
ख़मोश रह के हमें ला-जवाब कर देगा
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गुज़रे जिधर से नूर बिखेरे चले गए
वो हम-सफ़र हुए तो अँधेरे चले गए
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जिस में इंसानियत नहीं रहती
हम दरिंदे हैं ऐसे जंगल के
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