आलम ख़ुर्शीद के शेर
इश्क़ में तहज़ीब के हैं और ही कुछ फ़लसफ़े
तुझ से हो कर हम ख़फ़ा ख़ुद से ख़फ़ा रहने लगे
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टैग : ख़फ़ा
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पूछ रहे हैं मुझ से पेड़ों के सौदागर
आब-ओ-हवा कैसे ज़हरीली हो जाती है
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टैग : प्रदूषण
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बहुत सुकून से रहते थे हम अँधेरे में
फ़साद पैदा हुआ रौशनी के आने से
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टैग : रौशनी
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रात गए अक्सर दिल के वीरानों में
इक साए का आना जाना होता है
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मैं ने बचपन में अधूरा ख़्वाब देखा था कोई
आज तक मसरूफ़ हूँ उस ख़्वाब की तकमील में
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हाथ पकड़ ले अब भी तेरा हो सकता हूँ मैं
भीड़ बहुत है इस मेले में खो सकता हूँ मैं
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कुछ रस्ते मुश्किल ही अच्छे लगते हैं
कुछ रस्तों को हम आसान नहीं करते
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चारों तरफ़ हैं शोले हम-साए जल रहे हैं
मैं घर में बैठा बैठा बस हाथ मल रहा हूँ
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टैग : फ़साद
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लकीर खींच के बैठी है तिश्नगी मिरी
बस एक ज़िद है कि दरिया यहीं पे आएगा
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कभी कभी कितना नुक़सान उठाना पड़ता है
ऐरों ग़ैरों का एहसान उठाना पड़ता है
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दिल रोता है चेहरा हँसता रहता है
कैसा कैसा फ़र्ज़ निभाना होता है
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पीछे छूटे साथी मुझ को याद आ जाते हैं
वर्ना दौड़ में सब से आगे हो सकता हूँ मैं
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किसी के रस्ते पे कैसे नज़रें जमाए रक्खूँ
अभी तो करना मुझे है ख़ुद इंतिज़ार मेरा
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माँगती है अब मोहब्बत अपने होने का सुबूत
और मैं जाता नहीं इज़हार की तफ़्सील में
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आए हो नुमाइश में ज़रा ध्यान भी रखना
हर शय जो चमकती है चमकदार नहीं है
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अपनी कहानी दिल में छुपा कर रखते हैं
दुनिया वालों को हैरान नहीं करते
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तमाम रंग अधूरे लगे तिरे आगे
सो तुझ को लफ़्ज़ में तस्वीर करता रहता हूँ
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कोई सूरत भी नहीं मिलती किसी सूरत में
कूज़ा-गर कैसा करिश्मा तिरे इस चाक में है
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टैग : ख़ुदा
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तब्दीलियों का नश्शा मुझ पर चढ़ा हुआ है
कपड़े बदल रहा हूँ चेहरा बदल रहा हूँ
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इस फ़ैसले से ख़ुश हैं अफ़राद घर के सारे
अपनी ख़ुशी से कब मैं घर से निकल रहा हूँ
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अब कितनी कार-आमद जंगल में लग रही है
वो रौशनी जो घर में बेकार लग रही थी
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किसी को ढूँडते हैं हम किसी के पैकर में
किसी का चेहरा किसी से मिलाते रहते हैं
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तहज़ीब की ज़ंजीर से उलझा रहा मैं भी
तू भी न बढ़ा जिस्म के आदाब से आगे
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अहल-ए-हुनर की आँखों में क्यूँ चुभता रहता हूँ
मैं तो अपनी बे-हुनरी पर नाज़ नहीं करता
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गुज़िश्ता रुत का अमीं हूँ नए मकान में भी
पुरानी ईंट से तामीर करता रहता हूँ
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मोहब्बतों के कई रंग रूप होते हैं
फ़रेब-ए-यार से कोई गिला नहीं करते
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