अमीर हम्ज़ा साक़िब
ग़ज़ल 91
अशआर 13
तुम्हारी ज़ात हवाला है सुर्ख़-रूई का
तुम्हारे ज़िक्र को सब शर्त-ए-फ़न बनाते हैं
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तह कर चुके बिसात-ए-ग़म-ओ-फ़िक्र-ए-रोज़गार
तब ख़ानक़ाह-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत में आए हैं
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ये गर्द है मिरी आँखों में किन ज़मानों की
नए लिबास भी अब तो पुराने लगते हैं
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तू आया लौट आया है गुज़रे दिनों का नूर
चेहरों पे अपने वर्ना तो बरसों का ज़ंग था
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मेरी दुनिया इसी दुनिया में कहीं रहती है
वर्ना ये दुनिया कहाँ हुस्न-ए-तलब थी मेरा
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