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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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अनीस अशफ़ाक़

1955 | लखनऊ, भारत

प्रसिद्ध कथाकार, शायर और आलोचक; लखनऊ की सभ्यता और सांस्कृतिक परिदृश्य पर उपन्यास लिखे

प्रसिद्ध कथाकार, शायर और आलोचक; लखनऊ की सभ्यता और सांस्कृतिक परिदृश्य पर उपन्यास लिखे

अनीस अशफ़ाक़ के शेर

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इस पे हैराँ हैं ख़रीदार कि क़ीमत है बहुत

मेरे गौहर की तब-ओ-ताब नहीं देखते हैं

ये ख़ाना हमेशा से वीरान है

कहाँ कोई दिल के मकाँ में रहा

देखा है किसी आहू-ए-ख़ुश-चश्म को उस ने

आँखों में बहुत उस की चमक आई हुई है

क्यूँ नहीं होते मुनाजातों के मअनी मुन्कशिफ़

रम्ज़ बन जाता है क्यूँ हर्फ़-ए-दुआ हम से सुनो

मेरे हाथ से छुटना है मेरे नेज़े को

तेरे तीर को तेरी कमाँ में रहना है

उस की मुट्ठी में जवाहिर थे नज़र मेरी तरफ़

और मुझे पैराया-ए-अर्ज़-ए-हुनर आता था

हर तरफ़ गहरी सियाही है मुहीत-ए-'इश्क़ में

एक शम'-ए-दिल के बुझने से धुआँ कितना हुआ

हम तेरे आसमान में हर्फ़-ए-ए'तिबार

उड़ना तो चाहते हैं मगर पर कहाँ से लाएँ

जो सा'अत-ए-नुमूद वही वक़्त-ए-रफ़्त-ओ-बूद

दरिया में कितनी देर सफ़र है हुबाब का

तो क्या हुआ जो गला ये रसन में रहने लगा

मज़ा तो दाना-ए-हक़ का दहन में रहने लगा

दस्तक पे अब घरों से कोई बोलता नहीं

पहले ये शहर शहर-ए-'अदम-रफ़्तगाँ था

जौहर बग़ैर क़ीमत-ए-आईना कुछ नहीं

आईना ले भी आएँ तो जौहर कहाँ से लाएँ

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