अरशद काकवी के शेर
न हँसने दे न रोने दे न जीने दे न मरने दे
इसी को ईस्तलाहन हम ज़माना कहते आए हैं
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जाने शब को क्या सूझी थी रिंदों को समझाने आए
सुबह को सारे मय-कश उन को मस्जिद तक पहुँचाने आए
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