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अतीक़ अंज़र

1963 | क़तर

अतीक़ अंज़र के शेर

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बिछड़ते वक़्त अना दरमियान थी वर्ना

मनाना दोनों ने इक दूसरे को चाहा था

ग़म की बंद मुट्ठी में रेत सा मिरा जीवन

जब ज़रा कसी मुट्ठी ज़िंदगी बिखरती है

वो ग़ज़ल की किताब है प्यारे

उस को पढ़ना सवाब है प्यारे

शाम के धुँदलकों में डूबता है यूँ सूरज

जैसे आरज़ू कोई मेरे दिल में मरती है

गाँव के परिंदे तुम को क्या पता बिदेसों में

रात हम अकेलों की किस तरह गुज़रती है

दूर मुझ से रहते हैं सारे ग़म ज़माने के

तेरी याद की ख़ुश्बू दिल में जब ठहरती है

तुझ से मिल कर भी उदासी नहीं जाती दिल की

तू नहीं और कोई मेरी कमी हो जैसे

तिरी ज़ुल्फ़ों के साए में अगर जी लूँ मैं पल-दो-पल

हो फिर ग़म जो मेरे नाम सहरा लिख दिया जाए

अश्क पलकों पे बिछड़ कर अपनी क़ीमत खो गया

ये सितारा क़ीमती था जब तलक टूटा था

तिरी शोख़ आँखों में बारहा कई ख़्वाब देखे हैं प्यार के

तिरा प्यार मेरा नसीब है किसी और को ये वफ़ा दे

इक उस की ज़ात से जब मेरा ए'तिबार उठा

तो फिर किसी पे भी आया ए'तिबार मुझे

किसी ने भेजा है ख़त प्यार और वफ़ा लिख कर

क़लम से काम दिया है मुझे ख़ुदा लिख कर

उसे देखने की थी आरज़ू मुझे उस की थी बड़ी जुस्तुजू

मगर उस के आरिज़-ए-नाज़ पे मिरी हर निगाह फिसल गई

कहीं बुझती है दिल की प्यास इक दो घूँट से 'अनज़र'

मैं सूरज हूँ मिरे हिस्से में दरिया लिख दिया जाए

मैं तुम से तर्क-ए-तअल्लुक की बात क्यूँ सोचूँ

जुदा जिस्मों से 'अनज़र' कभी भी साए हुए

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