अज़ीज़ लखनवी का परिचय
उपनाम : ''अज़ीज़''
मूल नाम : ख़्वाजा अज़ीज़ुद्दीन
ख़्वाजा अज़ीज़ 1821 को कश्मीर में पैदा हुए। उनकी ज़िंदगी के बारे में की गई मालूमात से पता चलता है कि उनके पुर्वज ख़्वाजा मोहम्मद मुक़ीम आठवीं सदी हिज्री में तुर्किस्तान से हज़रत सय्यद अशरफ़ुद्दीन बुलबुल शाह के साथ हिन्दुस्तान आए और कश्मीर में ज़िंदगी शुरू की। बुलबुल शाह वही हैं जिन्होंने कश्मीर में इस्लाम को फैलाया और इसको जन्नत-निशान बनाने में बहुत अहम रोल अदा किया। ख़्वाजा अज़ीज़ के पुर्वज कारोबारी होने के साथ-साथ सूफ़ी लोगों से भी गहरा लगाव रखते थे। उनके वालिद तक पहुँचते-पहुँचते उनका ख़ांदान बड़े तिजारती ख़ानदानों में शुमार किया जाने लगा। उनके वालिद अमीरुद्दीन ने तिजारत का दायरा इतना फैला किया कि यूरोप को भी कश्मीरी पश्मीना-पोश बना दिया। उनका ख़ास बाज़ार फ़्रांस था। यूरोप के तिजारत पेशा लोग कश्मीर आते और उनके घर पर मेहमान होते और फ़र्माइशी पश्मीनातै यार कराते। अपनी तिजारत को और बड़ा करने की ग़रज़ से ख़्वाजा अमीरुद्दीन अपने बाल-बच्चों के साथ कश्मीर से लखनऊ तशरीफ़ लाए उस वक़्त ब-मुश्किल ख़्वाजा ‘अज़ीज़’ की उम्र नौ बरस या आठ बरस रही होगी और उन्होंने सब्ज़ी मंडी की बारहदरी को अपना मुस्तक़िल मस्कन बनाया।
उनके मनसूबे के मुताबिक़ कुछ दिन तिजारत सही सम्त की तरफ़ बढ़ती रही। लेकिन ज़माने की गर्दिश का शिकार हुए और 1857 की पहली जंग-ए-आज़ादी के बाद हिन्दुस्तानी तिजारत की मंदी और यूरोप की अपनी मतलब-परस्ती ने उनके तिजारत और कारख़ाना को ठंडा कर दिया।
ख़्वाजा ‘अज़ीज़’ की बाक़ायदा तालीम-ओ-तर्बीयत का आग़ाज़ लखनऊ में हुआ लेकिन उनके तालीम हासिल करने की तफ़सील की जानकारी नहीं हैं। लेकिन उनके कलाम से इस बात का पुख़्तः सबूत मिलता है कि उनको फ़ारसी पर दस्तरस तो थी ही साथ ही अरबी ज़बान पर भी उबूर हासिल था। उनकी इल्मी लियाक़त इस बात से लगाया जा सकता है कि 1884 में उनके दोस्त शेख़ वाजिद हुसैन जो ताल्लुक़दार थे उनके बार-बार कहने पर कैनिंग कॉलेज में फ़ारसी ज़बान के प्रोफ़ैसर के पद को क़बूल फ़रमाया और नौ साल अपनी ख़िदमत देते रहे और उन्हीं की वजह से कैनिंग कॉलेज का मरतबा बढ़ा और एक बड़े इल्मी इदारा के तौर पर मशहूर हुआ।
ख़्वाजा साहब के चर्चे आम हो गए थे मुल्क के इलमी गुरोहों में उनका मरतबा बढ़ने लगा। 1909 में हैदराबाद दक्कन के मुहक्मा अल-सिना शर्क़ी के मुम्तहिन मुक़र्रर हुए। हैदराबाद में मुलाज़त में रहते हुए उनकी ख़ाहिश हुई कि मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ से मिलने का शर्फ़ हासिल हो और इसी ग़रज़ से 1863 कश्मीर जाते हुए रास्ते में दिल्ली में रुके। ‘ग़ालिब’ का ये आख़री दौर था। कमज़ोरी इस क़दर हो गई थी कि पलंग पर ही लेटे रहते और लेटे-लेटे ही लोगों को जवाब देता। सुन्ने की क़ुव्वत भी इस क़दर कम हो गई थी कि लोग बोलने की जगह काग़ज़ पर मतलब की बात लिख कर पेश करते और मिर्ज़ा साहब लेटे ही लेटे जवाब लिख देते ये मुआमला ख़्वाजा अज़ीज़ के साथ भी पेश आया। लिख कर उन्होंने ख़्वाजा ‘अज़ीज़’ से शेर सुनने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की। ख़्वाजा ‘अज़ीज़’ ने ये शेर लिख कर दिया।
मह-ए-मिस्रस्त दाग़ अज़ रश्क-ए-महताबे कि मन दारम
ज़ुलेख़ा कौर शुद दर हसरत-ए-ख़्वाबे कि मन दाराम
‘ग़ालिब’ को मह-ए-मिस्र तरकीब से ताम्मुल हुआ और लिखा कि माह-ए-कनआँ सुना है? मह-ए-मिस्र नई तरकीब है। ख़्वाजा ‘अज़ीज़’ ने इसकी सनद में ‘साएब’ तबरेज़ी का शेर पेश किया तो मिर्ज़ा बहुत ख़ुश हुए। शेअर बारहा पढ़ा और बहुत तारीफ़ की और मुबारकबाद भी दी।
ख़्वाजा को नाअतिया कलाम में जो उरूज हासिल था वो शायद ही किसी हमअसर के यहाँ मौजूद था। उनका एक नाअतिया शेर:
देहद हक़-ए-इश्क़ अहमदऐ बंदगान-ए-चीदः-ए-ख़ुद रा
ब-ख़ासाँ शाह मी-बख़शद मय-ए-नौशीदः-ए-ख़ुद रा
पटना के साहब-दिल बुज़ुर्ग मौलाना मोहम्मद सईद ‘हसरत’ ने ये शेर सुना तो उन पर मदहोशी से झूम उठे। उसी वक़्त कलकत्ता में एक आलमी समीनार में में अज़ीज़ का हफ़्त-बंद-अज़ीज़ी पढ़ा गया तो ईरानियों पर भी सुनने का शौक़ और बढ़ गया और बार-बार पढ़ने को कहा।
उन्होंने कई बार कश्मीर का सफ़र किया और इसी सफ़र से मुतअल्लिक़ उन्होंने एक मसनवी मसनवी-अरमग़ान-ए-लाजवाब लिखी है। इसमें कश्मीर के सफ़र से मुताल्लिक़ बहुत सारी तफ़सीलात मौजूद हैं। ख़्वाजा साहब ने 85 साल की उम्र पाई और 1915 ई. में लखनऊ में विसाल फ़रमाया।