चन्द्रभान ख़याल के शेर
पास से देखा तो जाना किस क़दर मग़्मूम हैं
अन-गिनत चेहरे कि जिन को शादमाँ समझा था मैं
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सोचता हूँ तो और बढ़ती है
ज़िंदगी है कि प्यास है कोई
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क्या उसी का नाम है रा'नाई-ए-बज़्म-ए-हयात
तंग कमरा सर्द बिस्तर और तन्हा आदमी
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नज़र में शोख़ शबीहें लिए हुए है सहर
अभी न कोई इधर से धुआँ धुआँ गुज़रे
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शहर में जुर्म-ओ-हवादिस इस क़दर हैं आज-कल
अब तो घर में बैठ कर भी लोग घबराने लगे
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वक़्त और हालात पर क्या तब्सिरा कीजे कि जब
एक उलझन दूसरी उलझन को सुलझाने लगे
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इंसान की दुनिया में इंसाँ है परेशाँ क्यूँ
मछली तो नहीं होती बेचैन कभी जल में
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हमारे घर के आँगन में सितारे बुझ गए लाखों
हमारी ख़्वाब गाहों में न चमका सुब्ह का सूरज
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टैग : आँगन
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वो जहाँ चाहे चला जाए ये उस का इख़्तियार
सोचना ये है कि मैं ख़ुद को कहाँ ले जाऊँगा
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सुब्ह आती है दबे पाँव चली जाती है
घेर लेता है मुझे शाम ढले सन्नाटा
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मिलता नहीं ख़ुद अपने क़दम का निशाँ मुझे
किन मरहलों में छोड़ गया कारवाँ मुझे
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कोई दाना कोई दीवाना मिला
शहर में हर शख़्स बेगाना मिला
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तुम जिसे समझे हो दुनिया उस के आँचल के तले
गेसुओं के पेच और ख़म के सिवा कुछ भी नहीं
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लोग मंज़िल की तरफ़ लपके हैं लेकिन
भीड़ में ग़फ़लत भी शामिल हो गई है
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तेरी परछाईं सिमटती जाएगी
जैसे जैसे फैलता जाएगा तू
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अपनी दीवारों से कुछ बाहर निकल
सिर्फ़ ख़ाली घर के बाम-ओ-दर न देख
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ले गया वो छीन कर मेरी जवानी
उस पे बस यूँही झपट कर रह गया मैं
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कर गया सूरज सभी को बे-लिबास
अब कोई साया कोई पैकर न देख
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कौन दहशत-गर्द है और कौन है दहशत-ज़दा
ये सब इक इबहाम-ए-पैहम के सिवा कुछ भी नहीं
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शबिस्ताँ-दर-शबिस्ताँ ज़ुल्मतों की एक यूरिश है
हर इक दामन से लिपटा है लरज़ता हाँफता सूरज
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