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दाग़ देहलवी के क़िस्से
आप शेर कहते नहीं, शेर जनते हैं
बशीर रामपुरी हज़रत-ए-दाग़ देहलवी से मुलाक़ात के लिए पहुंचे तो वो अपने मातहत से गुफ़्तगू भी कर रहे थे और अपने एक शागिर्द को अपनी नई ग़ज़ल के अशआ’र भी लिखवा रहे थे। बशीर साहब ने सुख़न गोई के इस तरीक़े पर ताज्जुब का इज़हार किया तो दाग़ साहब ने पूछा, “ख़ां साहब
मैं नमाज़ पढ़ रहा था, लाहौल तो नहीं
एक रोज़ दाग़ नमाज़ पढ़ रहे थे कि एक साहब उनसे मिलने आए और उन्हें नमाज़ में मशग़ूल देखकर लौट गए। उसी वक़्त दाग़ ने सलाम फेरा। मुलाज़िम ने कहा, “फ़ुलां साहब आए थे वापस चले गये।” फ़रमाने लगे, “दौड़ कर जा, अभी रास्ते में होंगे।” वो भागा-भागा गया और उन साहब को
तवाइफ़ की शेर पर इस्लाह
मिर्ज़ा दाग़ के शागिर्द अहसन मारहरवी अपनी ग़ज़ल पर इस्लाह के लिए उनके पास हाज़िर हुए। उस वक़्त मिर्ज़ा साहब के पास दो तीन दोस्तों के अलावा उनकी मुलाज़िमा साहिब जान भी मौजूद थी। जब अहसन ने शे’र पढ़ा, किसी दिन जा पड़े थे बेख़ुदी में उनके सीने पर बस इतनी