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दाऊद मोहसिन

1962 | दावणगेरे, भारत

समकालीन कहानीकारों में शामिल

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दाऊद मोहसिन

कहानी 7

अशआर 16

ज़ब्त की थी शर्त दिल से जाने क्यूँ

लम्हा लम्हा बेकली होने लगी

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ज़िंदगी टूट के बिखरी है सर-ए-राह अभी

हादिसा कहिए इसे या कि तमाशा कहिए

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बात तेरे नाम की होने लगी

दिल में मेरे सनसनी होने लगी

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मैं चाहता हूँ तुम्हें अपनी ज़िंदगी की तरह

मिरे वजूद पे छा जाओ चाँदनी की तरह

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लम्हा लम्हा पुकारे जाते हैं

कौन दिल के क़रीब आते हैं

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