दत्तात्रिया कैफ़ी के शेर
तू देख रहा है जो मिरा हाल है क़ासिद
मुझ को यही कहना है कि मैं कुछ नहीं कहता
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मा'लूम है वादे की हक़ीक़त
बहला लेते हैं अपने जी को
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इश्क़ ने जिस दिल पे क़ब्ज़ा कर लिया
फिर कहाँ उस में नशात ओ ग़म रहे
कोई दिल-लगी दिल लगाना नहीं है
क़यामत है ये दिल का आना नहीं है
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टैग : दिल-लगी
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वफ़ा पर दग़ा सुल्ह में दुश्मनी है
भलाई का हरगिज़ ज़माना नहीं है
दैर ओ काबा में भटकते फिर रहे हैं रात दिन
ढूँढने से भी तो बंदों को ख़ुदा मिलता नहीं
उर्दू है जिस का नाम हमारी ज़बान है
दुनिया की हर ज़बान से प्यारी ज़बान है
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टैग : उर्दू
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उलझा ही रहने दो ज़ुल्फ़ों को सनम
जो न खुल जाएँ भरम अच्छे हैं
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इक ख़्वाब का ख़याल है दुनिया कहें जिसे
है इस में इक तिलिस्म तमन्ना कहें जिसे
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टैग : दुनिया
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नफ़्स को मार कर मिले जन्नत
ये सज़ा क़ाबिल-ए-क़यास नहीं
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यूँ आओ मिरे पहलू में तुम घर से निकल कर
बू आती है जिस तरह गुल-ए-तर से निकल कर
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सच है इन दोनों का है इक आलम
मेरी तन्हाई तेरी यकताई
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वो कहा करते हैं कोठों चढ़ी होंटों निकली
दिल में ही रखना जो कल रात हुआ कोठे पर
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तल्ख़ कहते थे लो अब पी के तो बोलो ज़ाहिद
हाथ आए इधर उस्ताद मज़ा है कि नहीं
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कहने को तो कह गए हो सब कुछ
अब कोई जवाब दे तो क्या हो
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सब कुछ है और कुछ भी नहीं दहर का वजूद
'कैफ़ी' ये बात वो है मुअम्मा कहें जिसे
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जो चश्म-ए-दिल-रुबा के वस्फ़ में अशआ'र लिखता हूँ
तो हर हर लफ़्ज़ पर अहल-ए-नज़र इक साद करते हैं
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बोल उठती कभी चिड़िया जो तिरी अंगिया की
ख़ुश-नवाई की न यूँ जीतती बुलबुल पाली
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तुम से अब क्या कहें वो चीज़ है दाग़-ए-ग़म-ए-इश्क़
कि छुपाए न छुपे और दिखाए न बने
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टैग : ग़म
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ढूँढने से यूँ तो इस दुनिया में क्या मिलता नहीं
सच अगर पूछो तो सच्चा आश्ना मिलता नहीं
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सैल-ए-गिर्या की बदौलत ये हुआ घर का हाल
ख़ाक तक भी न मिली बहर-ए-तयम्मुम मुझ को
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हाल-ए-दिल लिखते न लोगों की ज़बाँ में पड़ते
वज्ह-ए-अंगुश्त-नुमाई ये क़लम है हम को
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उक़्दा-ए-क़िस्मत नहीं खुलता मिरा
ये भी तिरा बंद-ए-क़बा हो गया
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रहने दे ज़िक्र-ए-ख़म-ए-ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल को नदीम
उस के तो ध्यान से भी होता है दिल को उलझाओ
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या इलाही मुझ को ये क्या हो गया
दोस्ती का तेरी सौदा हो गया
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वुज़ू होता है याँ तो शैख़ उसी आब-ए-गुलाबी से
तयम्मुम के लिए तुम ख़ाक जा कर दश्त में फाँको
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ख़बर किसे सुब्ह-ओ-शाम की है तअ'ईनात और क़ुयूद कैसे
नमाज़ किस की वहाँ किसी को ख़याल तक भी नहीं वुज़ू का
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मो'जिज़ा हज़रत-ए-ईसा का था बे-शुबह दुरुस्त
कि मैं दुनिया से गया उठ जो कहा क़ुम मुझ को
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दम ग़नीमत है सालिको मेरा
जरस-ए-दौर की सदा हूँ मैं
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है अक्स-ए-आइना दिल में किसी बिलक़ीस-ए-सानी का
तसव्वुर है मिरा उस्ताद बहज़ाद और मानी का
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जो दिल-ओ-ईमाँ न दें नज़राँ बुतों को देख कर
या ख़ुदा वो लोग इस दुनिया में आए किस लिए
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अस्ल वहदत की बिना है अदम-ए-ग़ैरिय्यत
उस का जब रंग जमा ग़ैर को अपना जाना
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बादबानों में भरी है इस के क्या बाद-ए-नफ़स
कश्ती-ए-उम्र-ए-रवाँ को ताब लंगर की नहीं
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शम्अ'-रूयों की मोहब्बत का जो दम भरते हैं
एक मुद्दत वो अभी बैअ'त-ए-परवाना करें
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वस्ल का करता हूँ जब ज़िक्र उन से
इक तबस्सुम तह-ए-लब करते हैं
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