एहतिशाम अख्तर के शेर
शहर के अंधेरे को इक चराग़ काफ़ी है
सौ चराग़ जलते हैं इक चराग़ जलने से
मिरे अज़ीज़ ही मुझ को समझ न पाए कभी
मैं अपना हाल किसी अजनबी से क्या कहता
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सोच उन की कैसी है कैसे हैं ये दीवाने
इक मकाँ की ख़ातिर जो सौ मकाँ जलाते हैं
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तुम जलाना मुझे चाहो तो जला दो लेकिन
नख़्ल-ए-ताज़ा जो जलेगा तो धुआँ भी देगा
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