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फ़र्रुख़ जाफ़री

1941 | इलाहाबाद, भारत

फ़र्रुख़ जाफ़री

ग़ज़ल 20

अशआर 8

कोई ठहरता नहीं यूँ तो वक़्त के आगे

मगर वो ज़ख़्म कि जिस का निशाँ नहीं जाता

मसअला ये है कि उस के दिल में घर कैसे करें

दरमियाँ के फ़ासले का तय सफ़र कैसे करें

थे उस के हाथ लहू में हमारे ग़र्क़ मगर

ज़रा भी शर्म आई उसे मुकरते हुए

हर रोज़ दिखाई दें सब लोग वहीं लेकिन

जब ढूँडने निकलें तो मिलता ही नहीं कोई

जिस्म के अंदर जो सूरज तप रहा है

ख़ून बन जाए तो फिर ठंडा करेंगे

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