जोर्ज पेश शोर के शेर
दिल में अपने आरज़ू सब कुछ है और फिर कुछ नहीं
दो जहाँ की जुस्तुजू सब कुछ है और फिर कुछ नहीं
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गुज़िश्ता साल जो देखा वो अब की साल नहीं
ज़माना एक सा बस हर बरस नहीं चलता
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इक नज़र ने किया है काम तमाम
आरज़ू भी तो थी यही दिल की
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देते न दिल जो तुम को तो क्यूँ बनती जान पर
कुछ आप की ख़ता न थी अपना क़ुसूर था
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इसी ख़याल में दिन-रात मैं तड़पता हूँ
तुम्हीं क़रार भी दोगे जो बे-क़रार किया
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ज़र्रे की तरह ख़ाक में पामाल हो गए
वो जिन का आसमाँ पे सर-ए-पुर-ग़ुरूर था
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तुम्हारे इश्क़ में क्या क्या न इख़्तियार किया
कभी फ़लक का कभी ग़ैर का वक़ार किया
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जहाँ में ज़र का है कारख़ाना न कोई अपना न है यगाना
तलाश-ए-दौलत में है ज़माना ख़ुदा ही हाफ़िज़ है मुफ़्लिसी का
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उस माह-रू पे आँख किसी की न पड़ सकी
जल्वा था तूर का कि सरासर वो नूर था
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दूर हम से हैं वो तो क्या डर है
पास है अपने आरसी दिल की
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है तलाश-ए-दो-जहाँ लेकिन ख़बर अपनी किसे
जीते-जी तक जुस्तुजू सब कुछ है और फिर कुछ नहीं
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अदम से हस्ती में जब हम आए न कोई हमदर्द साथ लाए
जो अपने थे वो हुए पराए अब आसरा है तो बेकसी का
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जब जवानी गई छुड़ा कर हाथ
उस पे पीरी न कुछ चली दिल की
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शौक़ ने की जो रहबरी दिल की
मंज़िल-ए-इश्क़ तय हुई दिल की
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जान पर अपनी हाए क्यूँ बनती
बात जो मानते कभी दिल की
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हवा के घोड़े पे रहता है वो सवार मुदाम
किसी का उस के बराबर फ़रस नहीं चलता
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रुके है आमद-ओ-शुद में नफ़स नहीं चलता
यही है हुक्म-ए-इलाही तो बस नहीं चलता
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इक ख़याल-ओ-ख़्वाब है ए 'शोर' ये बज़्म-ए-जहाँ
यार और जाम-ओ-सुबू सब कुछ है और फिर कुछ नहीं
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पैक-ए-ख़याल भी है अजब क्या जहाँ-नुमा
आया नज़र वो पास जो अपने से दूर था
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नहीं है टूटे की बूटी जहान में पैदा
शिकस्ता जब हुआ तार-ए-नफ़स नहीं चलता
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