- पुस्तक सूची 183877
-
-
पुस्तकें विषयानुसार
-
बाल-साहित्य1921
औषधि869 आंदोलन290 नॉवेल / उपन्यास4294 -
पुस्तकें विषयानुसार
- बैत-बाज़ी11
- अनुक्रमणिका / सूची5
- अशआर64
- दीवान1432
- दोहा64
- महा-काव्य98
- व्याख्या182
- गीत81
- ग़ज़ल1079
- हाइकु12
- हम्द44
- हास्य-व्यंग36
- संकलन1540
- कह-मुकरनी6
- कुल्लियात671
- माहिया19
- काव्य संग्रह4829
- मर्सिया374
- मसनवी814
- मुसद्दस57
- नात533
- नज़्म1194
- अन्य68
- पहेली16
- क़सीदा179
- क़व्वाली19
- क़ित'अ60
- रुबाई290
- मुख़म्मस17
- रेख़्ती12
- शेष-रचनाएं27
- सलाम33
- सेहरा9
- शहर आशोब, हज्व, ज़टल नामा13
- तारीख-गोई28
- अनुवाद73
- वासोख़्त26
ग़ज़नफ़र का परिचय
अजीब बात हमारा ही ख़ूँ हुआ पानी
हमीं ने आग में अपने बदन भिगोए थे
पिछले चालीस पैंतालीस सालों में जिन तख़लीक़-कारों ने मुख़्तलिफ़ शेरी और अदबी हवालों से अपनी पहचान बनाई और अपनी इन्फ़िरादियत का सिक्का जमाया उनमें ग़ज़नफ़र एक अहम ,नुमायाँ और मोतबर नाम है। अफ़साना, नाॅवेल, ड्रामा, दास्तान, इंशाइया, ख़ाका, ग़ज़ल, नज़्म, मस्नवी, तन्क़ीद, दर्सियात और लिसानियात के मौज़ू पर तक़रीबन ढाई दर्जन किताबों का मुसन्निफ़ होना जहाँ उनके इल्मी और तहक़ीक़ी दायरा-ए-कार को दिखाता है, वहीं मैदान-ए-इल्म-ओ-अदब में उनके मुसलसल इन्हिमाक और उनकी तख़लीक़ी सलाहियतों की ग़म्माज़ी भी करता है।
ग़ज़नफ़र की तहरीरों को पढ़ने पर ये हक़ीक़त भी सामने आती है कि उन्हें बने-बनाए रास्ते पर चलना पसंद नहीं। वो अपनी मंज़िल के हुसूल के लिए जाने पहजाने रास्तों को इख़्तियार नहीं करते बल्कि अपने अदबी सफ़र को जारी रखने के लिए अपनी राह ख़ुद बनाते हैं। देखा ये गया है कि इस नई डगर की तलाश और जिद्दत तराज़ी की मुहिम-जूई में वो अक्सर कामयाब भी हुए हैं। वो अपने लिए तलाश की गई रविश को इतना रौशन कर देते हैं कि वो दूसरों के लिए भी मशअल-ए-राह बन जाती है। फ़िक्शन हो या शायरी, तहक़ीक़ हो या तन्क़ीद, दर्सियात हो या लिसानियात, मसनवी हो या दास्तान, ख़ाका हो या ख़ुद-नविश्त, सवानिह-हयात या शहर-नामा, इंशाइया हो कि ड्रामा हर तरह की तहरीरें फ़िक्री, फ़न्नी, मौज़ूआती, उस्लूबियाती या लिसानी किसी न किसी नहज से ग़ज़नफ़र की क़ुव्वत-ए-इख़्तिरा, जिद्दत-ए-तबा और उनके तज्रबाती मैलान को सामने लाती हैं और लिसानी-ओ-अदबी साँचों को नए रंग-ओ-आहंग से हम-आमेज़ करती हैं। जाने-पहचाने लफ़्ज़ों से वो ऐसा पैकर बनाते हैं कि उनसे मआनी-ओ-मफ़ाहीम के नए रंग-ओ-आहंग फूट पड़ते हैं।
ग़ज़नफ़र की हर तहरीर तख़लीक़ी जाज़िबियत और लिसानी हलावत से पुर होती है । उनकी शेरी और अफ़सानवी तख़लीक़ात में तो तख़लीक़ी चमक दमक होती ही है, उनकी ग़ैर तख़लीक़ी निगारिशात में भी ज़बान-ओ-बयान की चाशनी-ओ-शीरीनी महसूस होती है। ग़ज़नफ़र की तहरीरों से लगता है कि ख़ुलूस-ओ-सदाक़त के साथ-साथ वो उनमें अपना ख़ून-ए-जिगर भी शामिल कर देते हैं।
ग़ज़नफ़र का पूरा नाम ग़ज़नफ़र अली है। बचपन में ग़ज़नफ़र को अशफ़ाक़ अहमद के नाम से पुकारा गया मगर अक़ीक़े के मुबारक मौके़ पर उनके मामूँ किताबुद्दीन ने उनका नाम ग़ज़नफ़र अली रख दिया। यही उनका आफ़िशियल नाम बना। ग़ज़नफ़र ने जब तख़लीक़ी सरगर्मियाँ शुरू कीं तो उन्होंने अपने नाम के दोनों लफ़्ज़ों को मुख़्तसर कर के जी.ए. किया और आख़िर में ग़ज़नफ़र जोड़ लिया। इस तरह वो जी.ए. ग़ज़नफ़र हो गए। चुनाँचे उनकी इब्तिदाई तख़लीक़ात इसी नाम से शाए हुईं। उनका पहला ड्रामा “कोयले से हीरा” भी जी.ए. ग़ज़नफ़र के नाम से ही छपा। ग़ज़नफ़र जब एम.ए. में आ गए तो किसी दोस्त के मश्वरे से जी.ए. ग़ज़नफ़र को उन्होंने ग़ज़नफ़र अली ग़ज़नफ़र कर लिया। उनकी पहली तन्क़ीदी किताब “मशरिक़ी मेयार-ए-नक़्द” पर भी यही नाम यानी ग़ज़नफ़र अली ग़ज़नफ़र दर्ज है। बाद में जब रिसाला शबख़ून में उनकी ग़ज़लें छपीं तो शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी ने इस रिमार्क के साथ “ग़ज़नफ़र अली ग़ज़नफ़र में से ग़ज़नफ़र अली हटा दिया कि एक ग़ज़नफ़र ही काफ़ी है” को उनके तीन लफ़्ज़ी नाम को एक लफ़्ज़ी बना दिया। फ़ारूक़ी साहब की ये तरमीम ग़ज़नफ़र को पसंद आई और उन्होंने इसी नाम को अपना क़लमी नाम और तख़ल्लुस बना लिया। इस मुख़्तसर नाम पर मशहूर मज़ाह निगार मुज्तबा हुसैन ने एक बड़ा ही ख़ूबसूरत कमेन्ट किया है। ग़ज़नफ़र के ख़ाकों के दूसरे मजमुए रू-ए-ख़ुश-रंग के फ़्लैप पर उन्होंने लिखा हैः “ग़ज़नफ़र की तहरीरों में एक अजीब तरह का अनोखापन है। अनोखापन उनके नाम में भी है। मैंने इतना मुख़्तसर नाम आज तक नहीं सुना। यूँ हर अदीब या शायर को उसके चाहने वाले उसके नाम के किसी जुज़ से ही याद रखते हैं लेकिन किताबों पर शोअरा और अदीबों के पूरे नाम लिखे जाते हैं। ग़ज़नफ़र के नाम का इख़्तिसार उनकी क़ामत को मुख़्तसर नहीं करता बल्कि उसको और बुलंद करता है।”
ग़ज़नफ़र 9 मार्च 1953 को ज़िला गोपालगंज, सूबा बिहार के एक गाँव चौराऊँ में पैदा हुए। माँ का नाम दरूदन ख़ातून और वालिद का नाम अब्दुल मुजीब था। माँ घरेलू ख़ातून थीं और गाँव ही में बच्चों के साथ रहती थीं और वालिद रोज़गार के सिलसिले में कलकत्ता शहर में रहा करते थे। वहीं उनका इंतिक़ाल भी हुआ।
ग़ज़नफ़र की माँ अपने बेटे को बहुत पढ़ाना चाहती थीं और बड़ा आदमी बनाना चाहती थीं मगर ये भी चाहती थीं कि वो पहले मज़हबी तालीम हासिल कर लें ताकि आख़िरत सँवर जाए, फिर दुनियावी तालीम की तरफ़ उन्हें लगाया जाए। इसीलिए उन्हें पहले मदरसे में दाख़िला दिलवाया गया। ग़ज़नफ़र दीनी तालीम के हुसूल के लिए मदरसे में दाख़िल ज़रूर हुए और उन्हें दीन से ख़ूब रग़बत भी रही मगर मदरसे का ख़ुश्क और सख़्त पाबंदियों वाला माहौल उन्हें रास न आ सका। और वो बेज़ार होकर मदरसे से फ़रार हासिल करने लगे। किसी न किसी बहाने वहाँ से भाग कर वो घर आ जाते। या पढ़ाई छोड़कर बाहर किसी खेलकूद में लग जाते। तंग आकर माँ ने उन्हें मदरसे से निकाल कर गाँव के मकतब में दाख़िल करा दिया। यहाँ उनका पढ़ाई में दिल लग गया और ऐसा लगा कि वो असातिज़ा के चहेते बन गए।
ग़ज़नफ़र ने अपनी एक नज़्म “मियाँ तुम ही ग़ज़नफ़र हो” में इस जानिब इशारा भी किया है। ग़ज़नफ़र ने उस ज़माने में तो माँ की बातों को अहमियत नहीं दी मगर उन्हें इस बात का पछतावा उम्र भर रहा कि वो माँ की आँखों के सामने वो न कर सके जो उनकी माँ चाहती थीं। उन्होंने अपने इस एहसास को अपनी एक नज़्म में ढाला है। ग़ज़नफ़र के वालिद अजीब-ओ-ग़रीब ख़ूबियों के मालिक थे। जिन पर ग़ज़नफ़र ने एक बड़ा ही उम्दा और दिलचस्प ख़ाका भी लिखा है। उनके वालिद रोज़गार के सिलसिले में कलकत्ता शहर में रहते थे। उनका नाम अब्दुल मुजीब था और वो मजीद मियाँ के नाम से मशहूर थे। उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी कलकत्ते में गुज़ारी और ऐसे-ऐसे कारनामे अंजाम दिए कि वो अपने इलाक़े के स्पाइडर मैन बन गए। जिसका तफ़सीली तज़्किरा “मजीद मियां का ख़ून” में मौजूद है। ग़ज़नफ़र ने अपने वालिद पर एक बहुत ही पुर-असर नज़्म भी तहरीर की है जिससे एक बाप के किरदार की अज़्मत का इज़हार होता है।
मुस्लिम मुआशरती रिवाज के मुताबिक़ ग़ज़नफ़र के तालीमी सिलसिले का आग़ाज़ जैसा कि ऊपर ज़िक्र किया गया मदरसे में मज़हबी तालीम से हुआ लेकिन मदरसे के पाबंद और ख़ुश्क माहौल और हाफ़िज़ साहिबान की बेरहम छड़ी की मार ने जल्द ही उन्हें मदरसे से मकतब में पहुँचा दिया।
मकतब का माहौल उन्हें रास आ गया। गाँव के मकतब की खुली फ़िज़ा उन्हें ऐसी भाई कि पढ़ाई में भी उनके ज़ेहन-ओ-दिल इन्हिमाक से जुड़ गए। पहली ही क्लास में इन्होंने ऐसी शानदार कारकर्दगी का मुज़ाहरा किया कि पहली के बाद सीधे उन्हें क़ुतुब छपरा ज़िला सीवान के एक अपर प्राइमरी मकतब में पाँचवीं जमाअत में दाख़िला दिला दिया गया और वहाँ भी पाँचवीं के इम्तिहान में वो अच्छी पोज़ीशन लाने में कामयाब हो गए।
ग़ज़नफ़र अपने मामूँ के क़स्बे क़ुतुब छपरा के स्कूल से पाँचवीं पास कर के वापस अपने इलाक़े के मशहूर स्कूल सिमरा मिडिल स्कूल जिसके हेडमास्टर सियासी रहनुमा और साबिक़ चीफ़ मिनिस्टर बिहार, जनाब अबदुल ग़फ़ूर के बड़े भाई, मास्टर इस्लाम साहब थे, में दाख़िल हो गए। ये वही स्कूल था जिसमें ग़ज़नफ़र के वालिद भी जे़र-ए-तालीम रह चुके थे। इस स्कूल में ग़ज़नफ़र कोई पोज़ीशन तो नहीं ला सके मगर अपनी तख़लीक़ी सलाहियतों की बदौलत स्कूल के अच्छे तालिब-ए-इल्मों और असातिज़ा की नज़रों में नुमायाँ रहे।
सिमरा से मिडल पास करने के बाद ग़ज़नफ़र का दाख़िला वी.एम.एम.एच.ई. स्कूल गोपालगंज की आठवीं जमाअत में हो गया। उन्हें साइंस ग्रुप में दाख़िला दिलाया गया कि वालिद साहब उन्हें डाॅक्टर बनाना चाहते थे मगर जब आठवीं जमाअत के सालाना इम्तिहान में हिसाब के सब्जेक्ट में नंबर कम आए तो ग़ज़नफ़र ने घर वालों को बिना बताई ही ग्रुप बदल लिया और वो साइंस से आर्ट्स की तरफ़ चले गए।
ये फ़ैसला उनके हक़ में बेहतर साबित हुआ कि नौवीं जमाअत में उनकी अव्वल पोज़ीशन आ गई। उनकी ये पोज़ीशन आगे भी बरक़रार रही। दो साल के बाद इन्होंने अपनी पोज़ीशन को सामने रखते हुए बताया कि उन्होंने साइंस छोड़कर आर्टस ले लिया था। घर वालों को दुख तो हुआ मगर वो नाराज़ न हो सके कि ग़ज़नफ़र ने फ़र्स्ट पोज़ीशन की सर्टीफ़िकेट सामने जो रख दिया था।
हायर सेकेंडरी बोर्ड के इम्तिहान से क़ब्ल ग़ज़नफ़र की तबीअत बहुत ज़्यादा ख़राब हो गई। इतनी ज़्यादा कि उन्हें बोर्ड के इम्तिहान में बैठने से मना कर दिया गया मगर वो नहीं माने और अज़ीज़-ओ-अका़रिब के दबाव के बावजूद बिना तैयारी किए ही वो इम्तिहान में शामिल हो गए। लोगों को यक़ीन था कि फ़ेल तो होना ही है मगर उनके रिज़ल्ट ने सबको चौंका दिया। सिर्फ 5 नंबर से उनकी फ़र्स्ट डिवीज़न रह गई थी और कुछ सब्जेक्ट में तो उन्हें डिस्टिंक्शन भी हासिल हुआ था।
ये ग़ज़नफ़र की ज़ेहानत का कमाल था कि ज़ेहनी तवाज़ुन के बिगड़ जाने के बावजूद वो सलामत रही और ऐसी सूरत-ए-हाल में भी ग़ज़नफ़र को एक शानदार कामयाबी दिला कर उन्हें दुनिया की निगाह में सुर्ख़रू कर दिया।
हायर सेकेंडरी पास करने के बाद ग़ज़नफ़र ने गोपालगंज कॉलेज, गोपालगंज से बी.ए. किया और उसके बाद मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार यूनिवर्सिटी के शोबा-ए-उर्दू, एम.ए. साल-ए-अव्वल में दाख़िला ले लिया मगर वहाँ से जब जे.पी. यानी जयप्रकाश नारायण मूवमेंट में यूनिवर्सिटी बंद हो गई तो ग़ज़नफ़र अपने एक दोस्त नसीम आलम की मदद से अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के शोबा-ए-उर्दू में दाख़िला पाने में कामयाब हो गए।
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से 1976 में इम्तियाज़ के साथ एम.ए. किया और यूनिवर्सिटी मेडेल भी हासिल किया। इसी शोबे में रिसर्च में दाख़िला लिया। शिबली नोमानी के तन्क़ीदी नज़रियात पर तहक़ीक़ी मक़ाला लिखा और 1982 में पी.एच.डी. की डिग्री हासिल की।
रिसर्च के दौरान जे.आर.एफ़. निकाला और उर्दू अकादमी, उत्तर प्रदेश का भी वज़ीफ़ा हासिल किया और शोबे में आरिज़ी लैक्चरर भी रहे।
दौरान-ए-तालीम उर्दू के नामवर असातिज़ा ख़ुर्शीदुल इस्लाम, ख़लीलुर्रहमान आज़मी, शहरयार और क़ाज़ी अब्दुस्सत्तार की रहनुमाई में उनकी तख़लीक़ी सलाहियतें ख़ूब परवान चढ़ीं और देखते ही देखते वो शायर और अफ़साना निगार दोनों हैसियतों से पहचाने जाने लगे।
उन्हें उर्दू-ए-मुअल्ला का सेक्रेटरी भी नामज़द किया गया और अलीगढ़ मैगज़ीन के एडिटोरियल बोर्ड के मेंबरान में भी शामिल किया गया।
इसी दौरान उनका लेक्चरर के ओहदे पर तक़र्रुर भी हुआ मगर इन्होंने अपनी लेक्चरशिप को अपने एक दोस्त के लिए क़ुर्बान कर दिया। ये वाक़िया तफ़सील से “देख ली दुनिया हमने” में दर्ज है।प्राधिकरण नियंत्रण :लाइब्रेरी ऑफ कॉंग्रेस नियंत्रण संख्या : n88161416
join rekhta family!
-
बाल-साहित्य1921
-