ग़ुलाम हुसैन साजिद
ग़ज़ल 73
नज़्म 2
अशआर 35
इस अँधेरे में चराग़-ए-ख़्वाब की ख़्वाहिश नहीं
ये भी क्या कम है कि थोड़ी देर सो जाता हूँ मैं
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रुका हूँ किस के वहम में मिरे गुमान में नहीं
चराग़ जल रहा है और कोई मकान में नहीं
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हम मुसाफ़िर हैं गर्द-ए-सफ़र हैं मगर ऐ शब-ए-हिज्र हम कोई बच्चे नहीं
जो अभी आँसुओं में नहा कर गए और अभी मुस्कुराते पलट आएँगे
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अगर है इंसान का मुक़द्दर ख़ुद अपनी मिट्टी का रिज़्क़ होना
तो फिर ज़मीं पर ये आसमाँ का वजूद किस क़हर के लिए है
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एक ख़्वाहिश है जो शायद उम्र भर पूरी न हो
एक सपने से हमेशा प्यार करना है मुझे
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