हमीद नसीम
ग़ज़ल 8
अशआर 4
आसूदगी-आमोज़ हो जब आबला-पाई
हो जाती है मंज़िल की लगन दिल में तपाँ और
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क्या ख़बर मेरा सफ़र है और कितनी दूर का
काग़ज़ी इक नाव हूँ और तेज़-रौ पानी में हूँ
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देखते देखते तेरा चेहरा और इक चेहरा बन जाता है
इक मानूस मलूल सा चेहरा कब देखा था भूल गया हूँ
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न याद की चुभन कोई न कोई लौ मलाल की
मैं जाने कितनी दूर यूँही ख़ुद से बे-ख़बर गया
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