इज्तिबा रिज़वी
ग़ज़ल 33
नज़्म 4
अशआर 52
खंडर में माह-ए-कामिल का सँवरना इस को कहते हैं
तुम उतरे दिल में जब दिल को बयाबाँ कर दिया हम ने
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चुराने को चुरा लाया मैं जल्वे रू-ए-रौशन से
मगर अब बिजलियाँ लिपटी हुई हैं दिल के दामन से
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पुकारते हैं कि गूँज इस पुकार की रह जाए
दुआ दुआ तो कही जाएगी असर न सही
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