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इमदाद अली बहर

1810 - 1878 | लखनऊ, भारत

इमदाद अली बहर

ग़ज़ल 88

अशआर 91

आँखें जीने देंगी तिरी बे-वफ़ा मुझे

क्यूँ खिड़कियों से झाँक रही है क़ज़ा मुझे

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हम कहते थे हँसी अच्छी नहीं

गई आख़िर रुकावट देखिए

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ख़ुदा अलीम है हर शख़्स की बनावट का

कहो नमाज़ियो सज्दे किए कि सर पटका

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बनावट वज़्अ'-दारी में हो या बे-साख़्ता-पन में

हमें अंदाज़ वो भाता है जिस में कुछ अदा निकले

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मुझ को रोने तो दो दिखा दूँगा

बुलबुला है ये आसमान नहीं

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