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इन्तिज़ार हुसैन के उद्धरण
जिस ज़माने में तारों को देखकर ज़मीन की सम्त (दिशा) और रात का समय मालूम किया जाता था, उस ज़माने में सफ़र शायद तालीम का सबसे बड़ा ज़रिया था।
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गहराई और गीराई अलामतों से पैदा होती है। अदब में भी, ज़िंदगी में भी और अलामतें दोनों इलाक़ों से जा रही हैं।
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अगर समाज का अमल मिन हैस इल-मजमूअ तख़्लीक़ी नहीं है तो अदब में भी तख़्लीक़ी सरगर्मी नहीं हो सकती।
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शायरी, कम-अज़-कम बड़ी शायरी महज़ शुऊर का मामला नहीं होती। वे छोटे शायर होते हैं, जिन्हें पूरी ख़बर होती है कि वे शेर में क्या कर रहे हैं। बड़ा शायर ख़बर और बे-ख़बरी के दो-राहे पर होता है।
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पैग़म्बरों और लिखने वालों का एक मुआमला सदा से मुश्तर्क चला आता है। पैग़म्बरों का अपनी उम्मत से और लिखने वालों का अपने क़ारईन से रिश्ता दोस्ती का भी होता है और दुश्मनी का भी। वो उनके दरमियान भी रहना चाहते हैं और उनकी दुश्मन नज़रों से बचना भी चाहते हैं। मेरे क़ारईन मेरे दुश्मन हैं। मैं उनकी आँखों, दाँतों पर चढ़ना नहीं चाहता। सो जब अफ़साना लिखने बैठता हूँ तो अपनी ज़ात के शहर से हिज्रत करने की सोचता हूँ। अफ़साने लिखना मेरे लिए अपनी ज़ात से हिज्रत का अमल है!
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जज़्बातियत हक़ीक़त निगारी की मा-बाद-उत्तबीआत है। हक़ीक़त-निगार जब हक़ीक़त से गुरेज़ करते हैं तो जज़्बातियत में पनाह लेते हैं।
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मैं सोचता हूँ कि हम ग़ालिब से कितने मुख़्तलिफ़ ज़माने में जी रहे हैं। उस शख़्स का पेशा-ए-आबा सिपह-गरी था। शायरी को उसने ज़रिया-ए-इज़्ज़त नहीं समझा। ग़ालिब की इज़्ज़त, ग़ालिब की शायरी नहीं थी। शायरी उसके लिए इज़्ज़त का ज़रिया न बन सकी। अब शायरी हमारे लिए ज़रिया-ए-इज़्ज़त है।
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पुरानी दुनिया में इश्क़ जुज़-वक़्ती मशग़ला नहीं था। इसकी हैसियत ज़िम्नी और गै़र-ज़रूरी काम की नहीं थी। इश्क़ के आग़ाज़ के साथ सारे ज़रूरी काम मुअत्तल हो जाते थे और आदमी की पूरी ज़ात उस की लपेट में आ जाती थी। ये सन्अती अह्द का कारनामा है कि इश्क़ को ज़ात की वारदात और ज़िंदगी का नुमाइंदा जज़्बा मानने से इंकार किया गया।
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दुनिया आदमी के साथ लगी हुई है लेकिन जब आदमी दुनिया के साथ लग जाये और दुनयावी ज़रूरियात मुआशरे के आसाब पर सवार हो जाएं तो इसका मतलब यह होता है कि कोई क़द्र मर गई है। इस वाक़िए की ख़बर या तो किसी वली को होती है या अदीब को।
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इस सदी (बीसवीं सदी) की तीसरी और चौथी दहाई का उर्दू अफ़साना हक़ीक़त-निगारी और जज़्बातियत के घपले की पैदावार है। इस इमारत की ईंट टेढ़ी रखी गई है। कहने का मतलब यह है कि प्रेमचंद उर्दू अफ़साने की टेढ़ी ईंट हैं।
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फ़ारसी रस्म-उल-ख़त हमारी तहज़ीब की वो शक्ल है जो उसकी बुनियादी वह्दत के निशान का मर्तबा रखता है। लेकिन अगर हमारी तहज़ीब की दूसरी शक्लें जा रही हैं तो ये निशान कब तक खड़ा रहेगा, और गर ये निशान गिर गया तो तहज़ीब की बाक़ी शक्लें कितने दिन की मेहमान हैं। पस मस्अला महज़ इस रस्म-उल-ख़त का नहीं बल्कि इस पूरी तहज़ीब का है जिसका ये रस्म-उल-ख़त निशान है।
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नक़्क़ाद और प्रोफ़ेसर और तहज़ीबी इदारों के सरबराह झूट बोलते रहें लेकिन अगर कोई ऐसी सभा है जहां जीते जागते अदीब बैठे हैं तो इस का दर्द-ए-सर अव्वलन आज का अदब होना चाहीए।
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आज के लिखने वालों के लिए माज़ी कोई वाज़ेह और मुअय्यन रिश्ता नहीं रहा है बल्कि रिश्तों का एक गुच्छा है, जिसके मुख़्तलिफ़ सिरे हाथ में आ-आ कर फिसल जाते हैं।
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अदब और मोटर कार दो अलग-अलग क़दरें हैं। अदब एक ज़हनी रवैय्या है, जीने का एक तौर है, मोटर कार जीने का एक दूसरा उस्लूब है।
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चार आदमियों की सोहबत अदीब के तख़्लीक़ी काम में खंडत डालती है। लड़ाका बीवी, बातूनी इंटेलेक्चुअल, लायक़ मुअल्लिम और अदब की सरपरस्ती करने वाला अफ़सर।
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जब महसूस करने के बिदेसी साँचे फ़ैशन के तौर पर राह पाते हैं तो पेच-दर-पेच और तह-दर-तह इज़हार के वे तरीक़े भी बे-असर हो जाते हैं जिनकी बुनियाद क़ौमी तहज़ीब के पैदा किए हुए तौर-तरीक़ों और सोचने और महसूस करने के साँचों पर होती है।
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आज इत्तिहाद और आज़ादी के जज़्बात ने दुनिया में हंगामा पैदा कर रखा है। कल तक यह होता था कि मुहब्बत के पीछे आदमी ख़ुदकुशी कर लेता था। आज इज्तिमाई जज़्बात आलमगीर तबाही का सामान पैदा करते हैं।
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अलिफ़ लैला को बस यूँ समझ लीजिए कि सारे अरबों ने या एक पूरी तहज़ीब ने उसे तस्नीफ़ किया है।
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ज़माने की क़सम आज का लिखने वाला ख़सारे में है और बे-शक अदब की नजात इसी ख़सारे में है। ये ख़सारा हमारी अदबी रिवायत की मुक़द्दस अमानत है।
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लफ़्ज़ जब डूबता है तो अपने साथ किसी एहसास या किसी तसव्वुर को लेकर डूबता है और जब कोई उस्लूब बयान, तक़रीर और तहरीर के महाज़ पर पिट जाता है तो वो तस्वीरों, इशारों, किनायों, तलाज़िमों और कैफ़ियतों के एक लश्कर के साथ पसपा होता है।
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क़ौमों को जंगें तबाह नहीं करतीं। कौमें उस वक़्त तबाह होती हैं, जब जंग के मक़ासिद बदल जाते हैं।
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हम लिखने वाले एक बे-ईमान मुआशरे में सांस ले रहे हैं। ज़ाती मंफ़अत इस मुआशरे का अस्ल-उल-उसूल बन गई है और मोटर कार एक क़द्र का मर्तबा हासिल कर चुकी है।
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अफ़्साने का मैं तसव्वुर ही यूँ करता हूँ जैसे वो फुलवारी है, जो ज़मीन से उगती है।
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कहते हैं कि मौजूदा बर्र-ए-आज़मों (महाद्वीप) के साथ पहले एक और बर्र-ए-आज़म था, जो समुंद्र में ग़र्क़ हो गया। उर्दू की पुरानी दास्तानों और पुरानी शायरी में जो रंगा-रंग असालीब-ए-बयान और अन-गिनत अलफ़ाज़ नज़र आते हैं वो पता देते हैं कि उर्दू ज़बान भी एक पूरा बर्र-ए-आज़म ग़र्क़ किए बैठी है।
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अफ़साने का अलमिया (त्रासदी) तो ये है कि इसमें मुंशी प्रेमचंद पैदा हो गए। शायरी के साथ यह गुज़री कि वो मुख़्तलिफ़ तहरीकों के हाथों ख़राब-ओ-ख़स्ता हो कर प्रेमचंद के अफ़साने के अंजाम को पहुंच गई।
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बड़ा अदीब फ़र्द के तख़्लीक़ी जौहर और मुआशरे के तख़्लीक़ी जौहर के विसाल का हासिल होता है। बड़ा अदीब हमारे अह्द में पैदा नहीं हो सकता इसलिए कि ये अह्द अपना तख़्लीक़ी जौहर खो बैठा है।
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जब किसी ज़बान से अलामतें (प्रतीक) गुम होने लगती हैं तो वो इस ख़तरे का ऐलान हैं कि वो समाज अपनी रुहानी वारदात को भूल रहा है, अपनी ज़ात को फ़रामोश करना चाहता है।
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इश्तिहारात दिल-ओ-दिमाग़ पर यल्ग़ार करते हैं और अक़्ल के गिर्द घेरा डालते हैं। वे जदीद नफ़्सियाती अस्लहे से मुसल्लह होते हैं, जिनके आगे कोई मुदाफ़िअत नहीं चलती और दिल-ओ-दिमाग़ को बिल-आख़िर पसपा होना है।
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जब सब सच बोल रहे हों तो सच बोलना एक सीधा सादा और मुआशरती काम है, लेकिन जहां सब झूठ बोल रहे हो, वहां सच बोलना सबसे बड़ी अख़्लाक़ी क़द्र बन जाता है। इसे मुस्लमानों की ज़बान में शहादत कहते हैं।
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तख़्लीक़ी अमल एक हमा-गीर सरगर्मी है। इसका आग़ाज़ दुकानों और बावर्ची-ख़ानों से होता है और तजुर्बा-गाहों और आर्ट गैलरियों में इसका अंजाम होता है। वो रोज़मर्रा की बोल-चाल और नशिस्त-ओ-बर्ख़ास्त से शुरू हो कर अफ़्साना और शायरी में इंतिहा को पहुँचता है।
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हर मतरूक (अप्रचलित) लफ़्ज़ एक गुमशुदा शहर है और हर मतरूक उस्लूब-ए-बयान (शैली) एक छोड़ा हुआ इलाक़ा।
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बात ये है कि मालूमात हवास से बे-तअल्लुक़ रहें और अफ़्क़ार-ओ-ख़्यालात ख़ून का हिस्सा ना बनें, यानी फ़िक्र और एहसास का संजोग ना हो सके तो फिर ये इल्म ख़ुश्क इल्म रहता है, हिक्मत नहीं बनता। इसमें वो तौलीदी क़ुव्वत पैदा नहीं होती कि ख़्याल से ख़्याल पैदा हो और अमली ज़िंदगी के साथ उस के वस्ल से कुछ नए रंग, कुछ ताज़ा खूशबूएं जन्म लें।
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आदमी ने पहले-पहल बराह-ए-रास्त चीज़ों की तस्वीरें बनाकर सिर्फ़ मतलब का इज़हार किया। ये तस्वीरें तज्दीदी रंग में ढलते ढलते रस्म-उल-ख़त बन गईं।
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इश्तिहारों की ताक़त यह है कि आज कोई फ़र्म ये ठान ले कि उसे ग़ुलेलों का कारोबार करना है तो वह उसे क्रिकेट के बराबर भी मक़्बूल बना सकती है।
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औरत यानी चे? मह्ज़ जिन्सी जानवर? फिर मर्द को भी इसी ख़ाने में रखिए। ये कोई अलग जानवर तो नहीं है, उसी माद्दा का नर है।
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रस्म-उल-ख़त की तब्दीली महज़ रस्म-उल-ख़त की तब्दीली नहीं होती, बल्कि वो अपने बातिन को भी बदलने का इक़दाम होती है।
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अगर हमें कोई नया निज़ाम बनाना है तो पुराने निज़ाम को याद रखना चाहिए।अगर हमने पुराने निज़ाम को भुला दिया तो फिर हमें ये भी पता नहीं चलेगा कि किस किस्म की बातों के लिए जद्द-ओ-जहद करनी चाहिए, और एक दिन नौबत ये आएगी कि हम जद्द-ओ-जहद से भी थक जाऐंगे और मशीन के सामने हथियार डाल देंगे।
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हम ने तज्रुबात और वारदात को याद रखा था और उन्हें अलामतों और इस्तिआरों में महफ़ूज़ कर लिया था। फिर ये क्या उफ़्ताद (मुसीबत) पड़ी कि ग़ज़ल से क़ैस-ओ-फ़रहाद हिजरत कर गए और कोह-ए-तूर पर ऐसी बिजली गिरी कि ग़ज़ल में अब उसका निशान नहीं मिलता। क़ैस-ओ-फ़रहाद के इस्तिआरों के मर जाने के मानी ये हैं कि एक बुनियादी इन्सानी जज़्बा हमारे मुआशरे में एक पैहम तहज़ीबी असर के मा-तहत जिस साँचे में ढल गया था वो साँचा बिखर गया है। जब ऐसा साँचा बिखरता है तो अख़्बारों में अग़वा और क़त्ल की ख़बरों और रिसालों में रूमानी नज़्मों और अफ़सानों की बोह्तात हो जाती है। रूमानी शायरी और रूमानी अफ़साना जज़्बात के अग़्वा और क़त्ल की वारदात हैं।
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आज का अदब, अगर वो सही और सच्चे मानों में आज का अदब है, तो आज के चालू मुआशरती मेयारात का तर्जुमान नहीं हो सकता।
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जब रोज़-मर्रा के कामों में तख़्लीक़ी अमल रुक जाये तो उसे कल्चर के ज़वाल की अलामत समझना चाहिए।
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रिश्तों की तलाश एक दर्द भरा अमल है। मगर हमारे ज़माने में शायद वो ज़्यादा ही पेचीदा और दर्द भरा हो गया है।
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सर-ए-अंगुश्त-ए-हिनाई का तसव्वुर भी अच्छा है कि यूं दिल में लहू की बूँद भी नज़र आती है और दिमाग़ में हुस्न का तसव्वुर भी क़ायम रहता है।
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अंग्रेज़ी फूल और रोमन हुरूफ़ अजनबी ज़मीनों से आए हैं। हमें उनसे महक नहीं आती। शायद हमारी बातिनी ज़िंदगी में वो रुसूख़ उन्हें कभी हासिल न हो सके जिसके बाद फूल और हुरूफ़ रुहानी मानवियत के हामिल बन जाया करते हैं।
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नामों का जाना और नामों का आना मामूली वाक़िया नहीं होता। नाम में बहुत कुछ रखा है। अपने मुस्तनद नामों को रद्द कर के किसी दूसरी तहज़ीब के नामों को सनद समझना, अफ़्क़ार-ओ-ख़्यालात के एक निज़ाम से रिश्ता तोड़ कर किसी दूसरे निज़ाम की गु़लामी क़बूल करना है।
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नई ग़ज़ल वज़ा करने का टोटका ये है कि नई अश्या के नाम शेर में इस्तेमाल कीजिए। जैसे कुर्सी, साईकिल, टेलीफ़ोन, रेलगाड़ी, सिग्नल।
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अस्ल में हमारे यहाँ मौलवियों और अदीबों का ज़हनी इर्तिक़ा (बौद्धिक विकास) एक ही ख़ुतूत पर हुआ है।
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एक बेईमान क़ौम अच्छी नस्र नहीं पैदा कर सकती, तो अच्छी शायरी क्या पैदा करेगी? वैसे इसका यह मतलब नहीं है कि ऐसे मुआशरे में अच्छे नस्र-निगार या शायर सिरे से पैदा ही नहीं होते। होते तो हैं मगर वो एक मुआस्सिर अदबी रुज्हान नहीं बन सकते और अदब एक मुआशरती ताक़त नहीं बन पाता।
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