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इन्तिज़ार हुसैन की कहानियाँ
आख़िरी आदमी
यह पौराणिक और ऐतिहासिक घटनाओं को आधार बनाकर रची गई कहानी है। समुंद्र के किनारे एक बस्ती है, जिसके लोग मछली पकड़ कर अपना गुज़र-बसर करते हैं। उन्हें एक विशेष दिन को मछली पकड़ने से मना किया जाता है, लेकिन लोग इस बात की अनसुनी कर मछली पकड़ते हैं और वह बंदर में बदल जाते हैं। बस एक आख़िरी आदमी बचता है, जो बंदर न बनने के लिए हर मुमकिन कोशिश करता है।
ज़र्द कुत्ता
यह एक शिक्षाप्रद फैंटेसी क़िस्म की रुहानी कहानी है। इसमें मुर्शिद और उसके मुरीद की गुफ़्तुगू है। मुरीद अपने मुर्शिद शेख़ उस्मान कबूतर के पास आया है। वह इमली के पेड़ के नीचे बसर करते हैं और परिन्दों की तरह उड़ सकते हैं। मुरीद अपने जिज्ञासा के बारे में उनसे कई सवाल करता है और मुर्शिद शेख़ उस्मान उन सवालों के जवाब में उसे कई ऐसे वाक़िये सुनाते हैं जिन्हें सुनकर वह एक अलग ही दुनिया में पहुँच जाता है।
हमसफ़र
यह एक प्रतीकात्मक कहानी है। एक शख़्स जिसे मॉडल टाउन जाना है, बिना कुछ सोचे-समझे एक चलती बस में सवार हो जाता है। उसे नहीं पता कि यह बस, जिसमें वह सवार है मॉडल टाउन जाएगी भी या नहीं। वह बस में बैठा है और अपने साथियों को याद करता है, जिनके साथ वह पाकिस्तान जाने वाली ट्रेन में सवार हुआ था। ट्रेन पाकिस्तान आई थी, लेकिन सभी साथी बिछड़ गए थे। बस में सवार सवारियों की तरह, जो अपने-अपने स्टॉप पर उतरती रहीं और गलियों में बिसर गईं।
शहर-ए-अफ़्सोस
यह एक मनोवैज्ञानिक कहानी है। तीन शख़्स, जो मरकर भी ज़िन्दा हैं और ज़िन्दा होने के बाद भी मरे हुए हैं। ये तीनों एक-दूसरे से अपने साथ गुज़रे हादिसों को बयान करते हैं और बताते हैं कि वे मरने के बाद ज़िन्दा क्यों हैं। और अगर ज़िन्दा हैं तो उनका शुमार मुर्दों में क्यों है? इसके साथ ही सवाल उठता है कि आख़िर ये लोग कौन हैं और कहाँ के रहने वाले हैं? ये शहर-ए-अफ़सोस के बाशिंदे हैं। अपनी ज़मीन से उखाड़े गए हैं और उखड़े हुए लोगों के लिए कहीं पनाह नहीं होती।
हिन्दुस्तान से एक ख़त
आज़ादी अपने साथ केवल विभाजन ही नहीं बर्बादी और तबाही भी लाई थी। ‘हिंदुस्तान से एक ख़त’ ऐसे ही एक तबाह-ओ-बर्बाद ख़ानदान की कहानी है, जो भारत की तरह (हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश) खु़द भी तीनों हिस्सों में तक़्सीम हो गया है। उसी ख़ानदान का एक फ़र्द पाकिस्तान में रहने वाले अपने रिश्तेदार को यह ख़त लिखता है, जो महज़ ख़त नहीं, बल्कि दास्तान है एक ख़ानदान के टूटने और टूटकर बिखर जाने की।
क़दामत पसन्द लड़की
वो चुस्त क़मीज़ पहनती थी और अपने आपको क़दामत पसंद बताती थी। क्रिकेट खेलते-खेलते अज़ान की आवाज़ कान में पहुँच जाती तो दौड़ते-दौड़ते रुक जाती, सर पे आँचल डाल लेती और उस वक़्त तक बाऊलिंग
ख़्वाब और तक़दीर
हिंसा व अत्याचार से तंग आकर लोग पलायन व प्रवास का रास्ता अपनाने पर कैसे मजबूर हो जाते हैं, इस कहानी से ब-ख़ूबी अंदाज़ा लगाया जा सकता है। कहानी के पात्र क़त्ल व जंग से दुखी हो कर शहर कूफ़ा से मदीना प्रवास करने का इरादा करते हैं लेकिन ये सोच कर कूच नहीं करते कि कहीं मदीना भी कूफ़ा न बन जाए। अंततः शांति का शहर मक्का की तरफ़ कूच करते हैं रात भर सफ़र के बाद जब उनकी आँख खुलती है तो वो कूफ़ा में ही मौजूद होते हैं। प्रथम वाचक कहता है मक्का हमारा ख़्वाब है कूफ़ा हमारी तक़दीर।
वो जो खोए गए
ज़ख़्मी सर वाले आदमी ने दरख़्त के तने से उसी तरह सर टिकाए हुए आँखें खोलीं। पूछा, “हम निकल आए हैं?” बारीश आदमी ने इतमीनान भरे लहजा में कहा। “ख़ुदा का शुक्र है हम सलामत निकल आए हैं।” उस आदमी ने जिस के गले में थैला पड़ा था ताईद में सर हिलाया, “बेशक,
कटा हुआ डब्बा
"कुछ बूढ़े व्यक्ति यात्रा से सम्बंधित अपने-अपने अनुभवों को बयान करते हैं। उनकी द्विअर्थी बातचीत से ही कहानी की घटनाएं संकलित होती हैं। उनमें से कोई कहता है आजकल सफ़र के कोई मा'नी न रहे, पहले तो एक सफ़र करने में सल्तनतें बदल जाया करती थीं, बच्चे जवान, जवान बूढ़े हो जाया करते थे लेकिन ट्रेन के सफ़र ने तो सब कुछ बदल डाला। इसी बीच एक पात्र को ट्रेन से सम्बंधित एक घटना याद आ जाती है, जिसमें ट्रेन का एक डिब्बा अलग हो जाता है जो रूपक है अपने अतीत और वारिसों से अलग हो जाने का।"
सीढ़ियाँ
"यह एक नास्तेल्जिक कहानी है। बीते दिनों की यादें पात्रों के अचेतन में सुरक्षित हैं जो सपनों के रूप में उन्हें नज़र आती हैं। वो सपनों के अलग- अलग स्वप्नफल निकालते हैं और इस बात से बे-ख़बर हैं कि ये अतीत के धरोहर हैं जिनकी परछाईयाँ उनका पीछा कर रही हैं। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि उन सपनों ने उन्हें अपनी पुनर्प्राप्ति की प्रक्रिया पर मजबूर कर दिया है।"
बादल
वो बादलों की तलाश में दूर तक गया। गली-गली घूमता हुआ कच्ची कोईआ पहुँचा। वहाँ से कच्चे रस्ते पर पड़ लिया और खेत-खेत चलता चला गया। मुख़ालिफ़ सिम्त से एक घसियारा घास की गठरी सर पर रखे चला आ रहा था। उसे उसने रोका और पूछा कि “इधर बादल आए थे?” “बादल?”
कश्ती
"अह्दनामा-ए-अतीक़ के प्रसिद्ध क़िस्से नूह को आधार बना कर लिखी गई इस कहानी में इंसान की मन-मानियों के परिणाम को प्रस्तुत किया गया है। ख़ुदा के बताए हुए सिद्धांतों को नकारने का नतीजा तबाही के रूप में देखना पड़ा, क़िस्सा नूह और हिंदू देव-माला के संयोजन से कहानी की फ़िज़ा बनाई गई है।"
दहलीज़
अधूरी मुहब्बत की कहानी जिसमें दो मासूम अपनी भावनाओं से अनभिग्य एक दूसरे के साथ एक दूसरे के पूरक की तरह हैं लेकिन भाग्य की विडंबना उन्हें दाम्पत्य सम्बंध में नहीं बंधने देती है। अतीत की यादें लड़की को परेशान करती हैं, वो अपने बालों में चटिलना लगाती है जो उसे बार-बार अपने बचपन के साथी तब्बू की याद दिलाती हैं जो उसकी चटिलना खींच दिया करता था। वही चटिलना अब भी उसके पास है लेकिन वो लगाना छोड़ देती है।
नर-नारी
यह एक प्रतीकात्मक कहानी है। मदन सुंदरी के भाई और पति के धड़ से जुदा सिर मंदिर के आँगन में पड़े हैं। मदन सुंदरी देवी से वरदान माँगती है और अनजाने में भाई का सिर पति के धड़ पर और पति का सिर भाई के धड़ पर लगा देती है। मदन सुंदरी को जब अपनी इस ग़लती का एहसास होता है तो वह अपने पति के साथ एक ऋषि के पास जाती है। ऋषि उसकी समस्या को सुनकर कहता है कि इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। अस्ल बात तो यह है कि वे केवल नर और नारी हैं।
मोर-नामा
1998 में भारत ने राजस्थान के पोखरण में परमाणु परीक्षण किया था। इससे इलाके़ के सारे मोर मर गए थे। लेखक ने जब यह ख़बर पढ़ी तो उन्हें बहुत दुख हुआ और इस कहानी को लिखा। लेकिन इस कहानी में उन्होंने केवल अपना दुख ही व्यक्त नहीं किया है। साथ ही उन्होंने पौराणिक कथाओं और अपने बचपन की स्मृतियों को भी एक सूत्र में पिरोया है।
ठंडी आग
मुख़तार साहब ने अख़बार की सुर्ख़ियों पर तो नज़र डाल ली थी और अब वो इतमीनान से ख़बरें पढ़ने की नीयत बांध रहे थे कि मनी अंदर से भागी-भागी आई और बड़ी गर्म-जोशी से इत्तिला दी कि “आपको अम्मी अंदर बुला रही हैं।” मिनी की गर्म-जोशी बस उसकी नन्ही सी ज़ात
वो जो दीवार को न चाट सके
याजूज माजूज की घटना को आधार बना कर इंसानों की लालच, अय्यारी और मक्कारी को बे-नक़ाब किया गया है। याजूज और माजूज रोज़ दीवार चाटते हैं, यहाँ तक कि वह दीवार सिर्फ़ एक अंडे के बराबर रह जाती है। ये सोच कर कि कल इस काम को पूरा कर देंगे, वो सो जाते हैं। सो कर उठते हैं तो दीवार फिर पहले की तरह मिलती है। अभी दीवार ख़त्म भी नहीं होती है कि उसके बाद होने वाले फ़ायदे के लालच में याजूज और माजूज के बीच लड़ाई शुरू हो जाती है। वह एक दूसरे की औलाद तक को मारने पर आमादा हो जाते हैं। उनके मतभेद इतने बढ़ जाते हैं कि वो दोनों एक दूसरे की नसलों को ख़त्म कर डालते हैं और दीवार जूँ की तूँ खड़ी रहती है।
आख़री मोमबत्ती
हमारी फूफीजान को तो बुढ़ापे ने ऐसे आ लिया जैसे क़िस्मत के मारों को बैठे बिठाए मर्ज़ आ दबोचता है। मेरी समझ में ये बात नहीं आती कि बाज़ लोग अचानक कैसे बूढ़े हो जाते हैं। आंधी धांधी जवानी आती है, बुढ़ापा तो धीरे धीरे सँभल कर आया करता है। लेकिन फूफीजान बूढ़ी
३१ मार्च
इस मुहब्बत की मुद्दत दस महीने तीस दिन है। यानी यक्म मई ५८-ई-को इसका आग़ाज़ हुआ और ३० मार्च ५९-ई- उसका अंजाम हुआ। अस्ल में इसका अंजाम मार्च की आख़िरी तारीख़ को होना था। इस सूरत में हिसाब सीधा होता और मुहब्बत की मुद्दत ग्यारह महीने होती। घपला इस वजह
कछुए
इस अफ़साने में कछुवे और मुर्ग़ाबी की कहानी को आधार बना कर समय बे-समय बोलने वालों के अंजाम को चिन्हित किया गया है। विद्या सागर भिक्षुओं को जातक कथाएं सुना कर नसीहत करता है कि जो भिक्षु समय बे-समय बोलेगा, वो गिर पड़ेगा और पीछे रह जाएगा। जिस तरह कछुवा मुर्ग़ाबी की चोंच से नीचे गिर गया था, उसी तरह किसी के साथ भी हो सकता है।
अजनबी परिन्दे
शक्ल उसकी घड़ी-घड़ी बदलती कभी रौशन दान की हद से निकल कर तिनकों का झूमर दीवार पर लटकने लगता, कभी इतना बाहर सरक आता कि आधा रौशन दान में है, आधा ख़ला में मुअल्लक़, कभी इक्का दुक्का तिनके का सरकशी करना और रौशन दान से निकल छत की तरफ़ बुलंद हो कर अपने वजूद
इंतेज़ार
"कुछ नौजवान किसी के आने का इंतज़ार कर रहे हैं। इंतज़ार करते करते रात हो गई लेकिन वो शख़्स नहीं आया, यहाँ तक कि वो सो गए। फिर उनमें से कुछ को संदेह हुआ कि जब सब सो गए थे तो वो आया था। एक व्यक्ति कहता है कि ये तो इंजील के दुल्हनों वाला क़िस्सा हो गया। एक व्यक्ति कहता है कि इंतज़ार कराने वाले शख़्स इतने ज़ालिम क्यों हो जाते हैं। फिर वो सिगरेट पी कर ताश खेल कर वक़्त गुज़ारी की सोचते हैं लेकिन ये चीज़ें मयस्सर नहीं हैं। फिर वो सोचते हैं कि हम में से कोई दास्तान-गो होता। फिर कई तरह की बातें मज़हब, सियासत वग़ैरा पर होने लगती हैं। एक शख़्स कहता है कि कहीं वो सचमुच न आ जाए।"
पसमांदगान
हाशिम ख़ान अट्ठाईस बरस का कड़ियल जवान, लंबा तड़ंगा, सुर्ख़-व-सफ़ेद जिस्म आन की आन में चटपट हो गया। कम्बख़्त मर्ज़ भी आंधी व हांदी आया। सुब्ह को हल्की हरारत थी, शाम होते होते बुख़ार तेज़ हो गया। सुब्ह जब डाक्टर आया तो पता चला कि सरसाम हो गया है। ग़रीब माँ-बाप
रुप नगर की सवारियाँ
तांगेवाला छिद्दा हर रोज़ गाँव से सवारियों को रुप नगर ले जाता है। उस दिन मुंशी रहमत अली को रुप नगर तहसील जाना होता है। इसलिए वह सुबह ही अड्डे पर आ जाते हैं। उनके आते ही छिद्दा भी अपना ताँगा लेकर आ जाता है। मुंशी के साथ दो सवारियाँ और सवार हो जाती हैं। तांगे में बैठी वे तीनों सवारियों और कोचवान छिद्दा इलाके के अतीत और वर्तमान के हालात को बयान करते चलते हैं।
परछाईं
"शनाख्त के संकट की कहानी है। एक व्यक्ति अपने अस्तित्व की तलाश में मारा मारा फिर रहा है लेकिन उसे कोई मुनासिब हल नहीं मिलता है। एक व्यक्ति ख़ुद को तलाश करता हुआ एक इबादत-ख़ाने के दरवाज़े पर दस्तक देता है तो बायज़ीद पूछते हैं कि तू कौन है? किसकी तलाश है? वो बताता है कि में बायज़ीद को तलाश कर रहा हूँ। बायज़ीद फ़रमाते हैं कि कौन बायज़ीद। मैं तो ख़ुद उसी की तलाश में हूँ।"
हड्डियों का ढ़ाँच
एक साल शहर में सख़्त क़हत पड़ा कि हलाल-ओ-हराम की तमीज़ उठ गई। पहले चील कव्वे कम हुए, फिर कुत्ते बिल्लियाँ थोड़ी होने लगीं। कहते हैं कि क़हत पड़ने से पहले यहाँ एक शख़्स मरकर जी उठा था। वो शख़्स जो मरकर जी उठा था उसके तसव्वुर में समा गया। उसने इस तसव्वुर
एहसान मंज़िल
ये अफ़साना सामाजिक स्तर पर पुराने से नए तक का सफ़र तय करने, रहन-सहन, आचार-व्यवहार, आदाब-ओ-सलाम के ढंग में तबदीली पर आधारित है। एहसान मंज़िल में रहने वाले लोग दकियानूसियत की हद तक पारंपरिक मूल्यों के पाबंद थे, बेटे की शिक्षा अलीगढ़ में होने की वजह से थोड़ी बहुत लचक तो आई लेकिन मानसिकता नहीं बदली। माँ ने जो पाबंदियाँ महमूदा पर लगाई थीं उसी तरह की पाबंदी वो अपनी बेटी पर लगा रही होती हैं।
पत्ते
इंसान की नैसर्गिक इच्छाओं पर रोक लगाने और क़ाबू न पा सकने की कहानी है जिसकी रचना जातक कथा और हिंदू देव-माला के हवाले से की गई है। संजय भिक्षा लेने इस मज़बूत इरादे के साथ जाता है कि वो भिक्षा देने वाली औरत को नहीं देखेगा लेकिन एक दिन उसकी नज़र एक औरत के पैरों पर पड़ जाती है, वो उसके लिए व्याकुल हो जाता है। अपनी परेशानी लेकर आनंदा के पास जाता है वो सुंदर समुद्र का क़िस्सा, बंदरों, चतुर राजकुमारी की जातक कथा सुनाता है। संजय निश्चय करता है कि अब वो बस्ती में भिक्षा लेने नहीं जाएगा लेकिन उसके क़दम स्वतः बस्ती की तरफ़ उठने लगते हैं। फिर वो सब कुछ छोड़ कर जंगल की तरफ़ हो लेता है लेकिन वहाँ भी उसे शांति नहीं मिलती है।
वो और मैं
" संदेह, अविश्वास और दुविधा का क़िस्सा एक किरदार के द्वारा सामने लाया गया है, जो रेस्तराँ में बैठ कर एक व्यक्ति पर भन्नाता है। पूछने पर मालूम होता है कि उसे उस आदमी पर अनजाना सा शक था इसलिए उस पर ग़ुस्सा आ रहा है। जब बैरा बिल लेकर आता है तो हैरत से पूछता है कि यह बिल किस चीज़ का है? बैरा बताता है कि कुछ देर पहले आप सामने की मेज़ पर थे। वो दुविधा की स्थिति में कहता है कि अच्छा वो मैं ही था।"
अपनी आग की तरफ़
मैंने उसे आग की रौशनी में पहचाना। क़रीब गया। उसे टहोका। उसने मुझे देखा फिर जवाब दिए बगेरे टिकटिकी बांध कर जलती हुई बिल्डिंग को देखने लगा। मैं भी चुप खड़ा देखता रहा। मगर शोलों की तपिश यहाँ तक आ रही थी। मैंने उसे घसीटा, कहा कि चलो। उसने मुझे बे-तअल्लुक़ी
यां आगे दर्द था
इस अफ़साने में अपनी जड़ों से कट जाने और तहज़ीब के ख़त्म हो जाने का नौहा है। कॉलेज में आम का एक दरख़्त है जिस पर विभिन्न राजनीतिक दलों के समर्थक छात्र अपना झंडा लगाते हैं लेकिन वैचारिक मतभेद की वजह से पेड़ पर झंडे लगाने की परंपरा ख़त्म कर दी जाती है। इस पाबंदी ने वो सारे चिन्ह मिटा दिए जो इस जगह पर घटित होते थे, वो जगह वीरान हो गई। गुज़रते वक़्त के साथ साथ उस पेड़ को काट कर नई इमारात बनाने की योजना बनाई जा रही है।
पछतावा
यह अफ़साना इंसानी वुजूद की बक़ा के कारणों और कर्मों पर आधारित है। माधव पैदाइश से पहले कोख में ही अपनी माँ की दुख भरी बातें सुन लेता है, इसलिए वो पैदा नहीं होना चाहता। नौ महीने पूरे होने के बाद ऐन वक़्त पर वो पैदा होने से इंकार करने लगता है। बहुत समझाने बुझाने पर तैयार होता है। लेकिन जवान होने के बाद दुख की स्थिति में सारी दौलत दान कर के जंगल की तरफ़ निकल पड़ता है, जहाँ उसे विलाप करती हुई एक औरत मिलती है जिससे उसके प्रेमी ने बे-वफ़ाई की है। माधव उससे हमदर्दी करता है लेकिन मोह माया में फंसने के डर से उसे छोड़कर चला जाता है, लेकिन किसी पल उसे सुकून नहीं मिलता। महाराज के मश्वरे पर फिर उसे तलाश करने निकलता है, अर्थात जीवन का यही उद्देश्य है।
दूसरा रास्ता
"देश की राजनीतिक स्थिति पर आधारित कहानी है। एक व्यक्ति डबल-डेकर बस की ऊपरी मंज़िल पर बैठा बस में मौजूद लोगों और बस से बाहर की तसावीर एक कैमरा-मैन की तरह पेश कर रहा है। बस में एक कत्बे वाला व्यक्ति है जिसके कत्बे पर लिखा है ''मेरा नस्ब-उल-ऐन मुसलमान हुकूमत के पीछे नमाज़ पढ़ना है", "फिर वो व्यक्ति बस में बैठे लोगों को संबोधित कर के सियासी हालात बयान करने लगता है। अचानक एक जुलूस रास्ता रोक लेता है। प्रथम वाचक और उसका दोस्त परेशान होते हैं कि मंज़िल तक पहुंच सकेंगे या नहीं। कहानी में प्रस्तुत हालात, संदेह, बेचैनी, अविश्वास और दुविधा की स्थिति को स्पष्ट करते हैं।"
मश्कूक लोग
होटल में एक ही टेबल पर बैठे हुए लोग किसी खु़फ़ीया मुआमले के बारे में बातें करते हुए प्रशासन, देश की सियासत पर आलोचना करते हैं और आपस में एक दूसरे पर शक करने लगते हैं। उनमें से एक व्यक्ति को लगता है कि दूसरे व्यक्ति की आँखें शीशे की हैं, इसी तरह धीरे-धीरे सब एक दूसरे की तरफ़ देखते हुए ये महसूस करते हैं कि उसकी आँखें शीशे की हो गई हैं।
मुर्दा राख
"मुहर्रम के अवसर पर धार्मिक संस्कारों को पूरा करते हुए कहानी के पात्र अपने अतीत में खो जाते हैं, वो वक़्त जो उन्होंने अपने दोस्तों, रिश्तेदारों के साथ गुज़ारा है और अचेतन में पड़ी हुई यादें मूरत हो कर सामने आने लगती हैं। अलम, घोड़े, ताज़िये नज़रों के सामने से गुज़रते जाते हैं।"
लंबा क़िस्सा
अतृप्त मुहब्बत की कहानी है। एक दोस्त अपने दूसरे दोस्त से उसकी नाकाम मोहब्बत का क़िस्सा पूछता है लेकिन कुछ बताने से पहले ही रेस्तराँ में और भी कई लोग आ जाते हैं। वो दोनों इस मामले को किसी और वक़्त के लिए टाल देते हैं। फिर छात्र जीवन की सियासी नोक-झोंक की बातें होने लगती हैं, वो ख़ामोश रहता है। फिर जब दोनों की मुलाक़ात होती है तो क़िस्सा छिड़ता है लेकिन वो बयान करने से असमर्थ रहता है।
महल वाले
देश विभाजन के बाद देश का धनाड्य वर्ग जो हिज्रत करके पाकिस्तान में आबाद हुआ था उनके यहाँ जायदाद के बंटवारे को लेकर उत्पन्न होने वाली समस्या को चित्रित किया गया है। महल वालों की हालत तो विभाजन से पहले जज साहिब की मौत के बाद ही ख़राब हो चुकी थी लेकिन विभाजन ने उनके ख़ानदान की दशा और ख़राब कर दी। प्रवास ने उन सबको एक जगह जमा कर दिया और वो सब छोड़ी हुई जायदाद के बदले मिलने वाली जायदाद के विभाजन के लिए आपस में उलझ गए। नतीजा ये हुआ कि सारी जायदाद बंट कर ख़त्म हो गई और सबके अंदर से मुरव्वत भी विदा हो गई।
बिगड़ी घड़ी
"मास्टर नियाज़ की दूकान के पास अब्बू नुजूमी की दूकान है। मास्टर नियाज़ के पास लोग घड़ी ठीक कराने और अब्बू नजूमी के पास अपनी क़िस्मत का हाल पूछने आते हैं। मास्टर नियाज़ खुले विचारों का आदमी है, कहता है कि, अब सितारे इंसान की क़िस्मत के मालिक नहीं रहे, इंसान सितारों की क़िस्मत का मालिक होगा। लेकिन अब्बू नुजूमी इंकार करता है, आख़िर में जब मास्टर नियाज़ अपनी घड़ी ठीक करने में नाकाम हो जाता है तो सोचता है कि सचमुच इंसान मजबूर है। ख़ुद अब्बू नुजूमी का भी यही दुख है कि वो दूसरों की क़िस्मत संवारने की उपाय बताता है लेकिन ख़ुद अपनी हालत बेहतर करने से असमर्थ है।"
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