इशरत क़ादरी
ग़ज़ल 17
अशआर 7
इक साया शरमाता लजाता राह में तन्हा छोड़ गया
मैं परछाईं ढूँड रहा हूँ टूटी हुई दीवारों पर
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इन अंधेरों से परे इस शब-ए-ग़म से आगे
इक नई सुब्ह भी है शाम-ए-अलम से आगे
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कौन देखेगा मुझ में अब चेहरा
आईना था बिखर गया हूँ मैं
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ज़ाहिरी शक्ल मेरी ज़िंदा है
और अंदर से मर गया हूँ मैं
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यूँ ज़िंदगी गुज़र रही है मेरी
जो उन की है वही ख़ुशी है मेरी
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