- पुस्तक सूची 180707
-
-
पुस्तकें विषयानुसार
-
बाल-साहित्य1852
औषधि708 आंदोलन267 नॉवेल / उपन्यास3764 -
पुस्तकें विषयानुसार
- बैत-बाज़ी12
- अनुक्रमणिका / सूची5
- अशआर63
- दीवान1333
- दोहा65
- महा-काव्य99
- व्याख्या163
- गीत80
- ग़ज़ल859
- हाइकु11
- हम्द35
- हास्य-व्यंग38
- संकलन1445
- कह-मुकरनी6
- कुल्लियात634
- माहिया17
- काव्य संग्रह4137
- मर्सिया348
- मसनवी734
- मुसद्दस49
- नात476
- नज़्म1075
- अन्य56
- पहेली16
- क़सीदा163
- क़व्वाली19
- क़ित'अ53
- रुबाई269
- मुख़म्मस18
- रेख़्ती13
- शेष-रचनाएं27
- सलाम31
- सेहरा9
- शहर आशोब, हज्व, ज़टल नामा13
- तारीख-गोई22
- अनुवाद73
- वासोख़्त24
संपूर्ण
परिचय
ई-पुस्तक88
कहानी28
लेख2
रेखाचित्र1
वीडियो8
गेलरी 2
बच्चों की कहानी3
ब्लॉग1
अन्य
रिपोर्ताज1
इस्मत चुग़ताई की कहानियाँ
लिहाफ़
जब मैं जाड़ों में लिहाफ़ ओढ़ती हूँ, तो पास की दीवारों पर उसकी परछाईं हाथी की तरह झूमती हुई मालूम होती है और एक दम से मेरा दिमाग़ बीती हुई दुनिया के पर्दों में दौड़ने भागने लगता है। न जाने क्या कुछ याद आने लगता है। माफ़ कीजिएगा, मैं आपको ख़ुद अपने लिहाफ़
अमर बेल
पहली बीवी की मौत के बाद एक बीस साला लड़की से शादी कर के शराफ़त भाई की तो ज़िंदगी ही बदल गई थी। वक़्त काफ़ी हँसी-ख़ुशी बीत रहा था। मगर बीतते वक़्त के साथ उनकी उम्र भी ढ़ल रही थी। दूसरी तरफ़ रुख़्साना बेगम थीं, उनकी उम्र तो नहीं ढ़ल रही थी, बल्कि ख़ूबसूरती थी कि बढ़ती ही जाती थी। शराफ़त भाई धीरे-धीरे क़ब्र की ओर चल दिए और रुख़्साना बेगम उसी हिसाब से हसीन से हसीनतर होती गई। शराफ़त के लिए वह एक ऐसी अमर बेल साबित हुई जो ख़ुद तो फलती-फूलती है, लेकिन जिसके सहारे चढ़ती है उसे पूरी तरह सूखा देती है।
चौथी का जोड़ा
एक बेवा औरत और उसकी दो जवान यतीम बेटियाँ। जवान बेटियों के लिए बेवा को उम्मीद है कि वह भी किसी दिन अपनी बच्चियों के लिए चौथी का जोड़ा तैयार करेगी। उसकी यह उम्मीद एक वक़्त परवान भी चढ़ती है, जब उसका भतीजा नौकरी के सिलसिले में उसके पास आ कर कुछ दिन के लिए ठहरता है। लेकिन जब यह उम्मीद टूटती है तो चौथी का वह जोड़ा जिसे वह अपनी जवान बेटी के लिए तैयार करने के सपने देखती थी वह बेटी के कफ़न में बदल जाता है।
जवानी
जब लोहे के चने चब चुके तो ख़ुदा ख़ुदा कर के जवानी बुख़ार की तरह चढ़नी शुरू हुई। रग-रग से बहती आग का दरिया उमँड पड़ा। अल्हड़ चाल, नशे में ग़र्क़, शबाब में मस्त। मगर उसके साथ साथ कुल पाजामे इतने छोटे हो गए कि बालिश्त बालिश्त भर नेफ़ा डालने पर भी अटंगे ही
बिच्छू फूपी
आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई कहानी। चुग़ताई ख़ानदान का एक शजरा है। जिसमें बहन है, भाई है, भाभी, भतीजे और भतीजियाँ। भाभियों को लेकर बहन-भाई का झगड़ा है। कोसना है, रोना है, एक दूसरे को छेड़ना और गालियाँ बकना है। गालियाँ बकने और झगड़ने में बिच्छू फूफी आगे है। बिच्छू अपने भाई से क्यों झगड़ती है और उसे गालियाँ बकती है, इसकी एक नहीं बहुत सारी वज्हें हैं। उन वज्हों को जानने के लिए पढ़ें यह मज़ेदार कहानी।
जड़ें
सब के चेहरे फ़क़ थे घर में खाना भी न पका था। आज छटा रोज़ था। बच्चे स्कूल छोड़े घरों में बैठे अपनी और सारे घर वालों की ज़िंदगी वबाल किए दे रहे थे। वही मार-कुटाई, धौल-धप्पा, वही उधम और क़लाबाज़ियाँ जैसे 15 अगस्त आया ही न हो। कमबख़्तों को ये भी ख़्याल नहीं
बदन की ख़ूश्बू
नवाबी ख़ानदान में अपने जवान होते बेटों के लिए लौंडी रख देने का रिवाज था। वे उनके साथ संबंध बनाते और फिर जब उन लौंडियों को हमल ठहर जाता तो उन्हें महल से निकाल दिया जाता। छम्मन मियाँ को जब पता चला कि हलीमा को महल से भेजा जा रहा है तो उन्होंने उसे रोकने के लिए हर किसी की ख़ुशामद की, मगर हर किसी ने उनकी बात सुनने से इंकार कर दिया। इससे छम्मन मियाँ को एहसास हुआ कि बात उनके हाथ से निकल चुकी है तो उन्होंने घर वालों के ख़िलाफ़ बग़ावत का ऐलान कर दिया।
हिन्दुस्तान छोड़ दो
हिन्दुस्तान छोड़ दो मुहीम के ज़माने में वह अंग्रेज़ अफ़सर बड़ा सरगर्म था। आज़ादी के बाद अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान छोड़ दिया मगर उसने नहीं छोड़ा। वह इंग्लैंड के एक किसान परिवार से तअल्लुक़ रखता था और एक अमीरज़ादी से शादी कर के हिन्दुस्तान में अफ़सर हो कर आया था। यहाँ उसकी ज़िंदगी अच्छी-ख़ासी कट रही थी। मगर अस्ल संघर्ष तो तब सामने आया जब अंग्रेज़ अपने मुल्क लौट गए और उसने हिन्दुस्तान छोड़ने से इंकार कर दिया।
एक शौहर की ख़ातिर
दुनिया चाहे कितनी ही आधुनिक क्यों न हो जाए। हमारे समाज में एक औरत की पहचान उसके शौहर से ही होती है। ट्रेन के सफ़र करने के दौरान उसे तीन हमसफ़र मिलीं। तीनों औरतें और उन तीनों ने उस से एक ही क़िस्म के सवाल करने शुरू कर दिए। वह न चाहते हुए भी उनके अनचाहे जवाब देती रही। मगर जब आख़िरी स्टेशन पर क्लर्क ने उसे सामान की रसीद देते हुए शौहर का नाम पूछा तो उसे एहसास हुआ कि हमारे समाज में एक औरत की पहचान के लिए शौहर का होना कितना ज़रूरी है।
कुंवारी
उसकी सांस फूली हुई थी। लिफ़्ट ख़राब होने की वजह से वो इतनी बहुत सी सीढ़ियाँ एक ही साँस में चढ़ आई थी। आते ही वो बेसुध पलंग पर गिर पड़ी और हाथ के इशारे से मुझे ख़ामोश रहने को कहा। मैं ख़ुद ख़ामोश रहने के मूड में थी। मगर उस की हालत-ए-बद देखकर मुझे परेशान
घूंघट
बे-मेल शादियाँ कभी कामयाब नहीं होतीं। वह जितना काला था उसकी बीवी उतनी ख़ूबसूरत थी। उसकी बीवी की ख़ूबसूरती की तारीफ़ सारे इलाक़े में थी इसलिए हर किसी ने उस पर तानाकशी शुरू कर दी। इस से तंग आकर उसने ऐसी क़सम खाई जिसे उसकी बीवी ने मानने से इंकार कर दिया। इंकार सुनकर उसने घर छोड़ दिया और फिर दुनिया-जहान में दर-दर भटकने लगा, क्योंकि जो शर्त उसने रखी थी वह उसकी बीवी पूरा करना नहीं चाहती थी।
भाबी
पंद्रह साल की भाबी कॉन्वेंट में पढ़ी थी और ख़ासी फ़ैशनेबल थी। मगर भैया को उनके अंदाज़ बिल्कुल भी पसंद नहीं आए। कहीं किसी और के साथ उनका चक्कर न चल जाए, उन्होंने घर वालों के साथ मिल कर उन्हें पक्की घर वाली बना दिया। मगर एक रोज़ जब उसी फ़ैशनेबल अंदाज़ में शबनम उनके सामने आई तो भय्या के सारे ख़यालात धरे के धरे रह गये।
दो हाथ
‘दो हाथ’ ग़ुरबत में बसर करने वाली पचास वर्ष की मेहतरानी की कहानी है। एक तरफ़ ऊँचे ख़ानदान की बड़ी-बड़ी शरीफ़ जातियों के गुनाह हैं, जो हम सड़क के किनारे या गटर में देखते हैं, तो दूसरी तरफ़ अदना तुच्छ जात समझे जाने वालों की फराख़दिली और दरियादिली है, जो नाज़ायज औलाद को भी एक नन्हा सा फरिश्ता समझकर सीने से लगाते हैं। शराफ़त का लबादा ओढ़ कर रियाकारी मेहतरानी को पसंद नहीं। उसके यहाँ गुनाह क़ुबूल करने का माद्दा है। यह नहीं कि गुनाह कर के पारसाई का इश्तेहार बनें।
जनाज़े
आज़ाद ख़्याल और औरत के अधिकारों की वकालत करने वाली लड़की की कहानी है, जो इसके लिए अपनी सहेलियों तक से लड़ जाती है। एक रोज़ उसे पता चलता है कि उसकी सहेली किश्वर की ज़बरदस्ती शादी कराई जा रही है तो वह उसे बचाने की मुहीम पर निकल पड़ती है। मगर उसे सिवाए मायूसी के कुछ भी हाथ नहीं लगता, क्योंकि उसकी सहेली होनी के आगे ख़ामोशी के साथ हथियार ड़ाल देती है।
नन्ही की नानी
‘मर्द भयानक होते हैं, बच्चे बदज़ात और औरत डरपोक।’ नानी अपनी नवासी नन्ही के साथ मौहल्ले में रहती है। वह मौहल्ले के लोगों की बेगार कर के किसी तरह अपना पेट पालती है। नन्ही कुछ बड़ी होती है तो उसे डिप्टी साहब के यहाँ रखवा देती है। लेकिन एक रोज़ वह डिप्टी साहब की हवस का शिकार हो जाती है और अपनी जवानी तक मौहल्ले के न जाने कितने लोग उसे अपना शिकार बनाते हैं। एक रोज़ वह भाग जाती है और नानी अकेली रह जाती है। अकेली नानी अपनी मौत तक मौहल्ले में डटी रहती है, लेकिन इस दौरान मौहल्ले वाले जिस तरह का सुलूक नानी के साथ करते हैं वह बहुत दर्दनाक है।
छूई-मूई
एक पारिवारिक कहानी है। भाई है और उसकी बीवी है। ख़ानदान है जो नाम चलाने के लिए वारिस चाहता है। भाभी कई बार हामिला होती है लेकिन हर बार उसका हमल गिर जाता है। पाँचवी बार वह फिर पेट से होती है तो उसे विलादत के लिए दिल्ली से अलीगढ़ ले जाया जाता है। रास्ते में एक दूसरी हामिला औरत ट्रेन में चढ़ती है और उसी में एक बच्चा जन देती है। उस औरत के बच्चा जनने का भाभी पर ऐसा असर होता है कि पाँचवी बार भी उसका हमल गिर जाता है।
मुग़ल बच्चा
‘मैं मर जाऊँगा पर, क़सम नहीं तोड़ूँगा’ कहावत को चरितार्थ करती चुग़ताई ख़ानदान के एक फ़र्द की कहानी। वह बिल्कुल काला भुजंग है, लेकिन उसकी शादी उतनी ही गोरी लड़की से हो जाती है। एक काले आदमी की गोरी लड़की से शादी होने पर लोग उसका मज़ाक़ उड़ाते हैं और उसे ताने देते हैं। इन सबसे तंग आकर वह ऐसी क़सम खाता है जिससे उसकी शादीशुदा ज़िंदगी पूरी तरह बर्बाद हो जाती है।
बड़ी शर्म की बात
रात के सन्नाटे में फ़्लैट की घंटी ज़ख़्मी बिलाव की तरह ग़ुर्रा रही थी। लड़कियां आख़िरी शो देखकर कभी की अपने कमरों में बंद सो रही थीं। आया छुट्टी पर गई हुई थी और घंटी पर किसी की उंगली बेरहमी से जमी हुई थी। मैंने लश्तम पश्तम जाकर दरवाज़ा खोला। ढोंडी छोकरे
पहली लड़की
किसी से मोहब्बत करना और उसे पा लेना, दो अलग-अलग चीज़़ें हैं। घर में रिश्ते की बात चली और फिर लड़के वाले भी उसे देखने आ गए। मगर उसने शादी से साफ़ इंकार कर दिया। वह जिस शख़्स से मोहब्बत करती थी, वह शादी-शुदा था और चाह कर भी उसे अपनी बीवी नहीं बना सकता था। वह पेट से थी और ज़िंदगी हर रोज़ एक नया मोड़ इख़्तियार करती जा रही थी।
सास
सास गिरगिट की तरह होती है। कब किस तरह का रंग बदल ले कहा नहीं जा सकता। बेटे के पीछे वह बहू को हर तरह की बात कहेगी। बेटे के सामने उसकी शियाकत करने से भी नहीं चूकेगी। मगर जब ग़ुस्से में आकर बेटा उसे हाथ भी लगा देगा तो वह ख़ुद बेटे को मारने के लिए दौड़ पड़ेगी। कुछ ऐसे ही रंगों वाली सास बसी है इसी कहानी में।
भूल भूलय्याँ
“लेफ़्ट राइट, लेफ़्ट राइट! क्वीक मार्च!' उड़ा उड़ा धम! ! फ़ौज की फ़ौज कुर्सीयों और मेज़ों की ख़ंदक़ और खाइयों में दब गई और ग़ुल पड़ा। “क्या अंधेर है। सारी कुर्सीयों का चूरा किए देते हैं। बेटी रफ़िया ज़रा मारियो तो इन मारे पीटों को।” चची नन्ही को दूध पिला
बहू बेटियां
ये मेरी सबसे बड़ी भाबी हैं। मेरे सबसे बड़े भाई की सबसे बड़ी बीवी। इस से मेरा मतलब हरगिज़ ये नहीं है कि मेरे भाई की ख़ुदा न करे बहुत सी बीवियाँ हैं। वैसे अगर आप इस तरह से उभर कर सवाल करें तो मेरे भाई की कोई बीवी नहीं, वो अब तक कँवारा है। उसकी रूह कुँवारी
अपना ख़ून
समझ में नहीं आता, इस कहानी को कहाँ से शुरू करूँ? वहां से जब छम्मी भूले से अपनी कुँवारी माँ के पेट में पली आई थी और चार चोट की मार खाने के बाद भी ढिटाई से अपने आसन पर जमी रही थी और उसकी मइया ने उसे इस दुनिया में लाने के बाद उपलों के तले दबाते दबाते
बेड़ियाँ
ज़िंदगी चाहे कितनी ही ख़ुशगवार क्यों न हो, कोई एक लम्हा ऐसा आता है कि सब कुछ बिखेर कर रख देता है। घर वालों के ताने-तश्ने सुनने के बाद भी वह अपने शौहर के साथ काफ़ी ख़ुश थी। हर मुसीबत और मुश्किल से निकल कर जब वह उसकी बाँहों के घेरे में जाकर गिरती तो उसे लगता है कि वह किसी जन्नत में आ गई। इसी जन्नत के घेरे में पड़े-पड़े उसने एक रात ऐसा ख़्वाब देखा कि उस ख़्वाब के ख़ौफ़ ने उसकी पूरी दुनिया को ही बदल दिया।
नन्ही सी जान
एक सस्पेंस थ्रिलर कहानी है। अपनी पहली पंक्ति से आपके अंदर एक सुगबुगाहट पैदा करती है। आप जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं हर पंक्ति पर सोचते हैं कि शायद इस बार पता चल जाए कि अस्ल माजरा क्या है। पर आपको अंत तक जाना ही होता है और जब आप आख़िरी में पहुँचते हैं तो मुस्कुरा कर यह कहे बिना नहीं रह सकते हैं... उफ़! तो ये बात थी।
ये बच्चे
भारत और कम्युनिस्ट रूस में पैदा होने वाले बच्चों की परवरिश और उनकी देखभाल की तुलना करती हुई यह कहानी बताती है कि आख़िर हमारे समाज में बच्चों को मुसीबत क्यों समझा जाता है। आख़िर माँयें अपने बच्चों से परेशान क्यों रहती हैं और बड़े हो कर वे बच्चे लायक़ इंसान क्यों नहीं बन पाते? इसकी वजह है हमारी सरकारों के नज़रिए। जो आप इस कहानी में पढ़ सकते हैं।
join rekhta family!
Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi
Get Tickets
-
बाल-साहित्य1852
-