इज़हार असर
ग़ज़ल 10
नज़्म 8
अशआर 5
एक ही शय थी ब-अंदाज़-ए-दिगर माँगी थी
मैं ने बीनाई नहीं तुझ से नज़र माँगी थी
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तमाम मज़हर-ए-फ़ितरत तिरे ग़ज़ल-ख़्वाँ हैं
ये चाँदनी भी तिरे जिस्म का क़सीदा है
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तारीकियों के पार चमकती है कोई शय
शायद मिरे जुनून-ए-सफ़र की उमंग है
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उन से मिलने का मंज़र भी दिल-चस्प था ऐ 'असर'
इस तरफ़ से बहारें चलीं और उधर से खिज़ाएँ चलीं
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तू भी तो हटा जिस्म के सूरज से अंधेरे
ये महकी हुई रात भी महताब-ब-कफ़ है
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