जमील नज़र
ग़ज़ल 15
अशआर 5
बे-वफ़ा ही सही ज़माने में
हम किसी फ़न की इंतिहा तो हुए
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देखिए तो है कारवाँ वर्ना
हर मुसाफ़िर सफ़र में तन्हा है
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अपने बारे में जब भी सोचा है
उस का चेहरा नज़र में उभरा है
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बड़ा अजीब है तहज़ीब-ए-इर्तिक़ा के लिए
तमाम उम्र किसी इक को हम-नवा रखना
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न क़ुर्ब-ए-ज़ात ही हासिल न ज़ख्म-ए-रुस्वाई
अजीब लगता है अब ख़ुद से राब्ता रखना
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