जावेद अकरम फ़ारूक़ी
ग़ज़ल 21
अशआर 6
ऐ ख़ाक-ए-वतन अब तो वफ़ाओं का सिला दे
मैं टूटती साँसों की फ़सीलों पे खड़ा हूँ
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मैं हाथों में ख़ंजर ले कर सोच रहा हूँ
लौटूँगा तो मेरा भी घर ज़ख़्मी होगा
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मुस्कुराने की सज़ा मिलती रही
मुस्कुराने की ख़ता करते रहे
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लम्हा लम्हा रोज़ सँवरने वाला तू
लम्हा लम्हा लम्हा रोज़ बिखरने वाला मैं
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सफ़र में तुम हमारे साथ रहना
कहीं हम रास्तों में खो न जाएँ
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