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ख़ालिद इक़बाल यासिर

1952 | पाकिस्तान

ख़ालिद इक़बाल यासिर के शेर

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रहती है साथ साथ कोई ख़ुश-गवार याद

तुझ से बिछड़ के तेरी रिफ़ाक़त गई नहीं

लगता है ज़िंदा रहने की हसरत गई नहीं

मर के भी साँस लेने की आदत गई नहीं

हाँ ये मुमकिन है मगर इतना ज़रूरी भी नहीं

जो कोई प्यार में हारा वही फ़नकार हुआ

भूल जाना था जिसे सब्त है दिल पर मेरे

याद रखना था जिसे उस को भुला बैठा हूँ

ख़ुद अपनी शक्ल देखे एक मुद्दत हो गई मुझ को

उठा लेता है पत्थर टूटे आईने नहीं देता

ज़माने के दरबार में दस्त-बस्ता हुआ है

ये दिल उस पे माइल मगर रफ़्ता रफ़्ता हुआ है

पलट के आए आए कोई सुने सुने

सदा का काम फ़ज़ाओं में गूँजते तक है

यही बहुत है किसी तरह से भरम ही रह जाए पेश दुनिया

अगर मयस्सर नहीं है बादा ख़याल-ए-बादा भी कम नहीं है

जैसी निगाह थी तिरी वैसा फ़ुसूँ हुआ

जो कुछ तिरे ख़याल में था जूँ-का-तूँ हुआ

आबाद बस्तियाँ थीं फ़सीलों के साए में

आपस में बस्तियों को मिलाता हुआ हिसार

बुरा भला वास्ता बहर-तौर उस से कुछ देर तो रहा है

कहीं सर-ए-राह सामना हो तो इतनी शिद्दत से मुँह मोड़ूँ

इन्हें दर-ए-ख़्वाब-गाह से किस लिए हटाया

मुहाफ़िज़ों की वफ़ा-शिआरी में क्या कमी थी

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