ख़ुर्शीद तलब
ग़ज़ल 25
अशआर 21
अज़ीज़ो आओ अब इक अल-विदाई जश्न कर लें
कि इस के ब'अद इक लम्बा सफ़र अफ़सोस का है
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आज दरिया में अजब शोर अजब हलचल है
किस की कश्ती ने क़दम आब-ए-रवाँ पर रक्खा
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मिरी मुश्किल मिरी मुश्किल नहीं है
वसीला तेरी आसानी का मैं हूँ
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हमें हर वक़्त ये एहसास दामन-गीर रहता है
पड़े हैं ढेर सारे काम और मोहलत ज़रा सी है
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