मख़मूर जालंधरी
ग़ज़ल 14
नज़्म 4
अशआर 3
ये फ़ैज़-ए-इश्क़ था कि हुई हर ख़ता मुआफ़
वो ख़ुश न हो सके तो ख़फ़ा भी न हो सके
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गो उम्र भर न मिल सके आपस में एक बार
हम एक दूसरे से जुदा भी न हो सके
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मौजूदगी-ए-जन्नत-ओ-दोज़ख़ से है अयाँ
रहमत है एक बहर मगर बे-कराँ नहीं
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