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मंसूर ख़ुशतर

1986 | दरभंगा, भारत

मंसूर ख़ुशतर

ग़ज़ल 14

अशआर 7

तवज्जोह आप फ़रमाएँ अगर तो

कुछ हम भी अर्ज़ करना चाहते हैं

यक़ीं कर कि मैं तुझ से भी ज़ियादा चाहता उस को

जो मेरे जैसा तेरा और कोई क़द्र-दाँ होता

तिरे जौर-ओ-जफ़ा का हम कभी शिकवा नहीं करते

मोहब्बत जिस से करते हैं उसे रुस्वा नहीं करते

था जो इक काफ़िर मुसलमाँ हो गया

पल में वीराना गुलिस्ताँ हो गया

नाज़-ओ-अंदाज़ की क़ीमत है तिरे मेरे सबब

किस की महफ़िल में भला और ग़ज़ब ढाओगे

लेख 1

 

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