मंसूर उस्मानी
ग़ज़ल 15
अशआर 17
ख़ुदा के नाम पे क्या क्या फ़रेब देते हैं
ज़माना-साज़ ये रहबर भी मैं भी दुनिया भी
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पहले तो उस की याद ने सोने नहीं दिया
फिर उस की आहटों ने कहा जागते रहो
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ये अलग बात कि अल्फ़ाज़ हैं मेरे लेकिन
सच तो बस ये है कि तेरी ही सदा है मुझ में
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हालात क्या ये तेरे बिछड़ने से हो गए
लगता है जैसे हम किसी मेले में खो गए
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