मंज़र भोपाली के शेर
आँख भर आई किसी से जो मुलाक़ात हुई
ख़ुश्क मौसम था मगर टूट के बरसात हुई
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बाप बोझ ढोता था क्या जहेज़ दे पाता
इस लिए वो शहज़ादी आज तक कुँवारी है
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अब समझ लेते हैं मीठे लफ़्ज़ की कड़वाहटें
हो गया है ज़िंदगी का तजरबा थोड़ा बहुत
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आप ही की है अदालत आप ही मुंसिफ़ भी हैं
ये तो कहिए आप के ऐब-ओ-हुनर देखेगा कौन
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सफ़र के बीच ये कैसा बदल गया मौसम
कि फिर किसी ने किसी की तरफ़ नहीं देखा
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ये किरदारों के गंदे आइने अपने ही घर रखिए
यहाँ पर कौन कितना पारसा है हम समझते हैं
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इन आँसुओं का कोई क़द्र-दान मिल जाए
कि हम भी 'मीर' का दीवान ले के आए हैं
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ख़ुद को पोशीदा न रक्खो बंद कलियों की तरह
फूल कहते हैं तुम्हें सब लोग तो महका करो
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आँधियाँ ज़ोर दिखाएँ भी तो क्या होता है
गुल खिलाने का हुनर बाद-ए-सबा जानती है
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हमारे दिल पे जो ज़ख़्मों का बाब लिक्खा है
इसी में वक़्त का सारा हिसाब लिक्खा है
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कोई तख़्लीक़ हो ख़ून-ए-जिगर से जन्म लेती है
कहानी लिख नहीं सकते कहानी माँगने वाले
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इधर तो दर्द का प्याला छलकने वाला है
मगर वो कहते हैं ये दास्तान कुछ कम है
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इक मकाँ और बुलंदी पे बनाने न दिया
हम को पर्वाज़ का मौक़ा ही हवा ने न दिया
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जो पारसा हो तो क्यूँ इम्तिहाँ से डरते हो
हम ए'तिबार का मीज़ान ले के आए हैं
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दिन भी डूबा कि नहीं ये मुझे मालूम नहीं
जिस जगह बुझ गए आँखों के दिए रात हुई
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ये अश्क तेरे मिरे राएगाँ न जाएँगे
उन्हीं चराग़ों से रौशन मोहब्बतें होंगी
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उन्हीं पे सारे मसाइब का बोझ रक्खा है
जो तेरे शहर में ईमान ले के आए हैं
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कह दो 'मीर'-ओ-'ग़ालिब' से हम भी शे'र कहते हैं
वो सदी तुम्हारी थी ये सदी हमारी है
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टैग : मीर तक़ी मीर
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कमानों में खिंचे हैं तीर तलवारें हैं चमकी
ज़रा ठहरो कहाँ जाते हो दरिया देखने को
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