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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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मौलवी अब्दुल हक़

1872 - 1961 | कराची, पाकिस्तान

मौलवी अब्दुल हक़ के उद्धरण

इंसानी ख़याल की कोई थाह नहीं और उसके तनव्वो और वुसअत की कोई हद है। ज़बान कैसी ही वसीअ' और भरपूर हो, ख़याल की गहराइयों और बारीकियों को अदा करने में क़ासिर रहती है।

ज़बान के ख़ालिस होने का ख़याल दर-हक़ीक़त सियासी है, लिसानी नहीं। इसका बाइस क़ौमियत का बेजा फ़ख़्र और सियासी नफ़रत है।

एक ज़माने में हिन्दी-उर्दू का झगड़ा मुक़ामी झगड़ा था, लेकिन जब से गांधी जी ने इस मसअले को अपने हाथ में लिया और हिन्दी की इशाअत का बेड़ा उठाया उसी वक़्त से सारे मुल्क में एक आग सी लग गई और फ़िर्का-वारी, इनाद और फ़साद की मुस्तहकम बुनियाद पड़ गई।

हमारे रहनुमाओं की ग़लतियों से उर्दू-हिन्दी का झगड़ा अब फ़ुरूई मसाइल में से नहीं रहा, अस्ल मसअला हो गया है।

बग़ैर किसी मक़सद के पढ़ना फ़ुज़ूल ही नहीं मुज़िर भी है। जिस क़दर हम बग़ैर किसी मक़सद के पढ़ते हैं उसी क़दर हम एक बा-मानी मुताला से दूर होते जाते हैं।

उर्दू का रस्म-उल-ख़त हिन्दी की तरह सिर्फ़ हिन्दुस्तान के एक-आध इलाक़े तक महदूद नहीं बल्कि यह हिन्दुस्तान के बाहर भी बहुत से मुल्कों में राइज है। कहाँ-कहाँ मिटाएँगे। यहाँ ये रस्म-उल-ख़त उर्दू की पैदाइश के साथ-साथ आया है। इसका मिटाना आसान नहीं।

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