मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ग़ज़ल 21
अशआर 21
छुप सका दम भर न राज़-ए-दिल फ़िराक़-ए-यार में
वो निहाँ जिस दम हुआ सब आश्कारा हो गया
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देख कर तूल-ए-शब-ए-हिज्र दुआ करता हूँ
वस्ल के रोज़ से भी उम्र मिरी कम हो जाए
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न सिकंदर है न दारा है न क़ैसर है न जम
बे-महल ख़ाक में हैं क़स्र बनाने वाले
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नहीं बुतों के तसव्वुर से कोई दिल ख़ाली
ख़ुदा ने उन को दिए हैं मकान सीनों में
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