मोहम्मद आज़म
ग़ज़ल 31
नज़्म 8
अशआर 18
आँखों में उस की मैं ने आख़िर मलाल देखा
किन किन बुलंदियों पर अपना ज़वाल देखा
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आती जाती है वो अब साँस की सूरत मुझ में
कब गई और कब आई मुझे मालूम नहीं
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बहुत परहेज़ है उस को मिरा बीमार हो कर भी
किसी सूरत मुझे अपनी दवा होने नहीं देता
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समझते ही नहीं हैं लोग ना-समझी की मुश्किल को
सुहूलत देखते हैं और समझना छोड़ देते हैं
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हमारे मुँह पे उस ने आइने से धूप तक फेंकी
अभी तक हम समझ कर उस को बच्चा छोड़ देते हैं
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