- पुस्तक सूची 188056
-
-
पुस्तकें विषयानुसार
-
बाल-साहित्य1967
औषधि915 आंदोलन300 नॉवेल / उपन्यास4644 -
पुस्तकें विषयानुसार
- बैत-बाज़ी13
- अनुक्रमणिका / सूची5
- अशआर64
- दीवान1448
- दोहा65
- महा-काव्य111
- व्याख्या198
- गीत83
- ग़ज़ल1166
- हाइकु12
- हम्द45
- हास्य-व्यंग36
- संकलन1581
- कह-मुकरनी6
- कुल्लियात688
- माहिया19
- काव्य संग्रह5042
- मर्सिया379
- मसनवी832
- मुसद्दस58
- नात550
- नज़्म1247
- अन्य69
- पहेली16
- क़सीदा189
- क़व्वाली19
- क़ित'अ62
- रुबाई296
- मुख़म्मस17
- रेख़्ती13
- शेष-रचनाएं27
- सलाम33
- सेहरा9
- शहर आशोब, हज्व, ज़टल नामा13
- तारीख-गोई29
- अनुवाद73
- वासोख़्त26
मोहम्मद हसन असकरी के उद्धरण
फ़न-बराए-फ़न हर क़िस्म की आसानियों, तर्ग़ीबों और मफ़ादों से महफ़ूज़ रह कर इंसानी ज़िंदगी की बुनियादी हक़ीक़तों को ढूँढने की ख़्वाहिश का नाम है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
इंक़लाब का असली मफ़हूम ख़ूँ-रेज़ी और तख़रीब नहीं, न महज़ किसी-न-किसी तरह की तब्दीली को दर-अस्ल इंक़लाब कहते हैं। यह तो इंक़लाब के सबसे सस्ते मानी हैं। असली इंक़लाब तो बग़ैर ख़ून बहाए भी हो सकता है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
फ़सादाद के मुतअ'ल्लिक़ जितना भी लिखा गया है उसमें अगर कोई चीज़ इंसानी दस्तावेज़ कहलाने की मुस्तहिक़ है तो मंटो के अफ़साने हैं।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
हम कितने और किस क़िस्म के अल्फ़ाज़ पर क़ाबू हासिल कर सकते हैं, इसका इंहिसार इस बात पर है कि हमें ज़िंदगी से रब्त कितना है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
मुहावरे सिर्फ़ ख़ूबसूरत फ़िक़रे नहीं, ये तो इज्तिमाई तजरबे के टुकड़े हैं, जिनमें समाज की पूरी शख़्सियत बसती है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
मुझे हक़ीक़त की निस्बत अफ़सानों से ज़्यादा शग़फ़ है। क्योंकि जब तक हक़ीक़त पर इंसानों के तख़य्युल का अमल नहीं होता, वो मुर्दा रहती है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
आख़िर लज़्ज़त से इतनी घबराहट क्यों? जब हम किसी पेड़ को, किसी किरदार के चेहरे को, उसके कपड़ों को, किसी सियासी जलसे को मज़े ले-ले कर बयान कर सकते हैं, तो फिर औरत के जिस्म को या किसी जिंसी फे़ल को लज़्ज़त के साथ बयान करने में क्या बुनियादी नक़्स है? लज़्ज़त बजा-ए-ख़ुद किसी फ़न-पारे को मर्दूद नहीं बना सकती, बल्कि उसके मक़बूल या मर्दूद होने का दार-ओ-मदार है लज़्ज़त की क़िस्म।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
इस्तिआरे से अलग ‘अस्ल ज़बान’ कोई चीज़ नहीं, क्योंकि ज़बान ख़ुद एक इस्तिआरा है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
जिस कायनात में सिर्फ़ इंसान ही इंसान रह जाए वो सिर्फ़ बे-रंग ही नहीं, इन्हितात-पज़ीर कायनात होगी।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
मैं इंसान-परस्ती से इसलिए डरता हूँ कि इसके बाद आदमी के ज़हन में लतीफ़, वसीअ' और गहरे तजरबात की सलाहियतें बाक़ी नहीं रहती और आदमी कई ए'तिबार से ठस बन के रह जाता है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
सबसे नफ़ीस पहचान फ़ुहश और आर्ट की यही है कि फ़ुहश से दोबारा वही लुत्फ़ नहीं ले सकते जो पहली मर्तबा हासिल किया था। आर्ट हर मर्तबा नया लुत्फ़ है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
माहौल इतनी तेज़ी से बदल रहा है कि किसी चीज़ को ग़ौर से देखने की मोहलत ही नहीं मिलती।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
जब मन-चलापन अपनी ख़ुद-ए'तिमादी में हद से गुज़रने लगता है तो मुहब्बत अच्छी ख़ासी पहलवानी बन जाती है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
मार्क्सियत सरमाया-दारी के इर्तिक़ा की तारीख़ तो बयान कर सकती है, लेकिन यह नहीं बता सकती कि आख़िर सरमाया-दार इतनी दौलत क्यों हासिल करना चाहता है। इसका जवाब सिर्फ़ नफ़्सियात दे सकती है। लिहाज़ा बुनियादी ए'तिबार से मआशी मसअला नफ़सियाती और अख़लाक़ी मसला बन जाता है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
जिस तहज़ीब में इंसान की पूजा हो वहाँ बड़ी शख़्सियतें पैदा ही नहीं हो सकतीं।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
असली इंक़लाब सिर्फ़ सियासी या मआशी नहीं होता बल्कि अक़दार का इंक़लाब होता है। इंक़लाब में सिर्फ़ समाज का ज़ाहिरी ढाँचा नहीं बदलता, बल्कि दिल-ओ-दिमाग़ सब बदल जाता है। इस से नया इंसान पैदा होता है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
उर्दू के अदीबों की कमज़ोरी यह है कि उन्हें अपनी ज़बान ही नहीं आती। हमारे अदीबों ने अवाम को बोलते हुए नहीं सुना, उनके अफ़सानों में ज़िंदा ज़बान और ज़िंदा इंसानों का लब-ओ-लहजा नहीं मिलता।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
फ़नकार हर उस चीज़ से दूर भागता है जिसके मुतअ'ल्लिक़ कहा जा सके कि यह अच्छी है या बुरी है। झूठी है या सच्ची।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
अगर अदब में फ़ुहश मौजूद है, तो उसे हव्वा बनाने की कोई माक़ूल वजह नहीं। अगर आप लोगों को फ़ुहश की मुज़र्रतों से बचाना चाहते हैं, तो उन्हें यह समझने का मौक़ा दीजिए कि क्या चीज़ आर्ट है और क्या नहीं है। जो शख़्स आर्ट के मज़े से वाक़िफ़ हो जाएगा उसके लिए फ़ुहश अपने-आप फुसफुसा हो कर रह जाएगा।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
इंक़लाब के मानी हक़ीक़त में यह हैं कि निज़ाम-ए-ज़िंदगी, जो नाकारा हो चुका है बदल जाए और उसकी जगह नया निज़ाम आए, जो नए हालात से मुताबिक़त रखता हो।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
अदीब को यह मालूम होना चाहिए कि उसे किस वक़्त, किस हैसियत से अमल करना है। शहरी की हैसियत से या अदीब की हैसियत से।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
हुक्मरान सिर्फ़ बादशाह या अमीर नहीं हैं, बल्कि जम्हूरी रहनुमा, समाजी मुसल्लिहीन, इज्तिमाई ज़िंदगी के मुतअ'ल्लिक़ सोचने वाले फ़लसफ़ी, इन सब को मैं हुक्मरानों में शामिल करता हूँ। यानी वो तमाम लोग, जो चाहते हैं कि आदमी एक ख़ास तरीक़े से ज़िंदगी बसर करें।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
फ़नकार के लिए तमाम अख़लाक़ी तअ'ल्लुक़ात मुर्दा हो चुके हैं। हुस्न वह आख़िरी तिनका है जिसका सहारा लिए बग़ैर उसे चारा नहीं।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
ग़ैर-मामूली हालात में ग़ैर-मामूली हरकतें हमें इंसान के मुतअ'ल्लिक़ ज़ियादा से ज़ियादा यह बता सकती हैं कि हालात इंसान को जानवर की सत्ह पर ले आते हैं।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
अगर अदीबों के पास लफ़्ज़ कम रह जाएँ तो पूरे मुआ'शरे को घबरा जाना चाहिए। यह एक बहुत बड़े समाजी ख़लल की अलामत है। अदब में लफ़्ज़ों का तोड़ा हो जाएगा, तो इसके साफ़ मा'नी यह हैं कि मुआ'शरे को ज़िंदगी से वसीअ' दिलचस्पी नहीं रही या तजरबात को क़बूल करने की हिम्मत नहीं पड़ती।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
जो शख़्स या जो जमाअत इस्तिआरे से डरती है, वो दर-अस्ल ज़िंदगी के मुज़ाहिरे और ज़िंदगी की कुव्वतों से डरती है। जीने से घबराती है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
ज़िंदगी की उकता देने वाली बे-रंगी को क़बूल किए बग़ैर नॉवेल नहीं लिखा जा सकता। नॉवेल-नवीस में ज़िंदगी से मुहब्बत के अलावा ज़िंदगी की यकसानी को सहारने की ताक़त भी होनी चाहिए।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
जब अदब मरने लगे तो अदीबों को ही नहीं, बल्कि सारे मुआ'शरे को दुआ-ए-क़ुनूत पढ़नी चाहिए।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
ला-महदूद मसर्रतों पर इंसान का हक़ तस्लीम कर लेने का आख़िरी नतीजा यह हुआ कि असली ज़िंदगी ही मोअ'त्तल हो कर रह गई है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
अदब बे-नफ़्सेही एक नए तवाज़ुन की तलाश है और इंक़लाब के तसव्वुर में तवाज़ुन की जगह ही नहीं रखी गई। इंक़लाब के तसव्वुर से मोअस्सिर अदब तो पैदा हो सकता है, मगर बड़ा अदब पैदा नहीं हो सकता।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
कुछ शायरों पर सबसे ज़्यादा लानत-मलामत इसलिए की जाती है कि उन्होंने समाजी मसाइल को काबिल-ए-ए'तिना नहीं समझा। इसकी हक़ीक़त सिर्फ़ इतनी है कि उन्होंने किसी ख़ास जमाअत की सियासत को काबिल-ए- ए'तिना नहीं समझा।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
रिवायत का सही तसव्वुर न होने की वजह से तख़लीक़ी फ़नकारों को, जो परेशानी हो रही है वो इबरत-ख़ेज़ है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
जो लोग किसी-न-किसी शक्ल में फ़न की बरतरी के क़ाइल थे, उनकी बुनियादी ख़्वाहिश ज़िंदगी से किनारा-कशी नहीं थी।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
मुजस्समों और तस्वीरों में जिन्सी आ'ज़ा उस वक़्त छुपाए जाने शुरू'अ होते हैं, जब ज़माना इन्हितात-पज़ीर होता है। जब रुहानी जज़्बे की शिद्दत बाक़ी नहीं रहती और ख़यालात भटकने लगते हैं। जब फ़नकार डरता है कि वो अपने नाज़रीन की तवज्जोह असली चीज़ पर मर्कूज़ नहीं रख सकेगा।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
वजूद के मुतज़ाद उसूलों और क़ुव्वतों को यकजा करके उनकी नौइयत बदल देना सिर्फ़ इस्तिआरे का काम है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
मुम्किन है कि आर्ट मौत का ऐलान करता हो। इसमें फ़र्द या क़ौम की ज़िंदगी से बे-ज़ारी या मौत की ख़्वाहिश झलकती हो। लेकिन आर्ट कभी और किसी तरह मौत की तलाश नहीं हो सकता।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
join rekhta family!
-
बाल-साहित्य1967
-