मोहसिन भोपाली
ग़ज़ल 34
नज़्म 4
अशआर 28
एक मुद्दत की रिफ़ाक़त का हो कुछ तो इनआ'म
जाते जाते कोई इल्ज़ाम लगाते जाओ
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