मुनव्वर राना
ग़ज़ल 45
नज़्म 9
अशआर 105
सो जाते हैं फ़ुटपाथ पे अख़बार बिछा कर
मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते
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उद्धरण 39

उर्दू मुशायरों की हवेली देखते देखते ही कैसी वीरान होती जा रही है। हवेली की मुंडेरों पर रखे हुए चराग़ एक-एक करके बुझते जा रहे हैं। ऐवान-ए-अदब की तरफ़ ले जाती हुई सबसे ख़ूबसूरत, पुर-विक़ार और पुर-कशिश पगडंडी कितनी सुनसान हो चुकी है। ख़ुदा करे किसी भी ज़बान पर ये बुरा वक़्त न आए, कोई कुंबा ऐसे न बिखरे, किसी ख़ानदान का इतनी तेज़ी से सफ़ाया न हो, किसी क़बीले की ये दुर्दशा न हो। अभी कल की बात है कि मुशायरे का स्टेज किसी भरे-पुरे दिहात की चौपाल जैसा था, स्टेज पर रौनक़-अफ़रोज़ मोहतरम शो'अरा किसी देव-मालाई किरदार मा'लूम होते थे। इन ज़िंदा किरदारों की मौजूदगी में तहज़ीब इस तरह फलती-फूलती थी जैसे बरसात के दिनों में इश्क़-ए-पेचाँ ऊँची-ऊँची दीवारों का सफ़र तय करता है।