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मुज़फ़्फ़र अबदाली

1971 | दिल्ली, भारत

मुज़फ़्फ़र अबदाली

ग़ज़ल 11

नज़्म 4

 

अशआर 5

कश्तियाँ लिखती रहें रोज़ कहानी अपनी

मौज कहती ही रही ज़ेर-ओ-ज़बर मैं ही हूँ

ख़ुदा भी कैसा हुआ ख़ुश मिरे क़रीने पर

मुझे शहीद का दर्जा मिला है जीने पर

बहकना मेरी फ़ितरत में नहीं पर

सँभलने में परेशानी बहुत है

रेत पर इक निशान है शायद

ये हमारा मकान है शायद

रह-गुज़र का है तक़ाज़ा कि अभी और चलो

एक उम्मीद जो मंज़िल के निशाँ तक पहुँची

पुस्तकें 4

 

वीडियो 10

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वीडियो का सेक्शन
शायर अपना कलाम पढ़ते हुए
किसे गुमाँ था

किसे गुमाँ था कि आसमाँ से ज़मीं पे पैग़ाम आ सकेंगे मुज़फ़्फ़र अबदाली

किस ने देखी है बहारों में ख़िज़ाँ मेरे सिवा

मुज़फ़्फ़र अबदाली

ख़मोशी की गिरह खोले सर-ए-आवाज़ तक आए

मुज़फ़्फ़र अबदाली

ख़्वाब उम्मीद से सरशार भी हो जाए तो क्या

मुज़फ़्फ़र अबदाली

निर्भया की मौत पर

कभी ख़िरद की खुली धूप में चला आया मुज़फ़्फ़र अबदाली

बयाबाँ को पशेमानी बहुत है

मुज़फ़्फ़र अबदाली

यक़ीन आज भी वहम-ओ-गुमान में गुम है

मुज़फ़्फ़र अबदाली

रीत पर इक निशान है शायद

मुज़फ़्फ़र अबदाली

रौनक़-ए-अर्ज़-ओ-समा शम्स ओ क़मर मैं ही हूँ

मुज़फ़्फ़र अबदाली

सदाक़त

वो एक शाम क़लम खो गया था जब मेरा मुज़फ़्फ़र अबदाली

ऑडियो 10

किस ने देखी है बहारों में ख़िज़ाँ मेरे सिवा

ख़मोशी की गिरह खोले सर-ए-आवाज़ तक आए

ख़्वाब उम्मीद से सरशार भी हो जाए तो क्या

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