मुज़फ़्फ़र अबदाली के शेर
बहकना मेरी फ़ितरत में नहीं पर
सँभलने में परेशानी बहुत है
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रेत पर इक निशान है शायद
ये हमारा मकान है शायद
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ख़ुदा भी कैसा हुआ ख़ुश मिरे क़रीने पर
मुझे शहीद का दर्जा मिला है जीने पर
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रह-गुज़र का है तक़ाज़ा कि अभी और चलो
एक उम्मीद जो मंज़िल के निशाँ तक पहुँची
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कश्तियाँ लिखती रहें रोज़ कहानी अपनी
मौज कहती ही रही ज़ेर-ओ-ज़बर मैं ही हूँ
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