नदीम अहमद
ग़ज़ल 8
अशआर 6
कुछ दिनों दश्त भी आबाद हुआ चाहता है
कुछ दिनों के लिए अब शहर को वीरानी दे
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कभी तो यूँ कि मकाँ के मकीं नहीं होते
कभी कभी तो मकीं का मकाँ नहीं होता
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कभी तो लगता है ये उज़्र-ए-लंग है वर्ना
मुझे तो कुफ़्र ने इस्लाम पर लगाया हुआ है
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दिल का शजर तो और भी पलने की आड़ में
मुरझा गया है फूलने-फलने के नाम पर
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मालूम नहीं नींद किसे कहते हैं लेकिन
करता तो हूँ इक काम मैं सोने की तरह का
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