नासिर शहज़ाद के शेर
फिर यूँ हुआ कि मुझ से वो यूँही बिछड़ गया
फिर यूँ हुआ कि ज़ीस्त के दिन यूँही कट गए
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अख़रोट खाएँ तापें अँगेठी पे आग आ
रस्ते तमाम गाँव के कोहरे से अट गए
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टैग : गाँव
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जब कि तुझ बिन नहीं मौजूद कोई
अपने होने का यक़ीं कैसे करूँ
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तुझ से बिछड़े गाँव छूटा शहर में आ कर बसे
तज दिए सब संगी साथी त्याग डाला देस भी
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नय्या बाँधो नदी किनारे सखी
चाँद बैराग रात त्याग लगे
तुझ से मिली निगाह तो देखा कि दरमियाँ
चाँदी के आबशार थे सोने की राह थी
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फिर मुझे मिल नदी किनारे कहीं
फिर बढ़ा मान आ के राहों का
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कुछ गुरेज़ाँ भी रहे हम ख़ुद से
कुछ कहानी भी अलमनाक हुई
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याद आए तू मुझ को बहुत जब शब कटे जब पौ फटे
जब वादियों में दूर तक कोहरा दिखे बे-अंत सा
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जिन्हें तिरे नाम की चाह है ये ज़मीन उन की गवाह है
वहीं कर्बला का वो दश्त है वहीं क़स्र-ए-कूफ़ा-ओ-शाम है
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तुझे पछाड़ न दें रौशनी में तेरे रफ़ीक़
दया बुझे न बुझे तो भी फूँक मार तो ले
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एक काटा राम ने सीता के साथ
दूसरा बन बॉस मेरे नाम पर
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नैन नचंत हैं देख के तुझ को
दिल है अज़ल से हक्का-बक्का
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क़ाएम है आबरू तो ग़नीमत यही समझ
मैले से हैं जो कपड़े फटा सा जो बूट है
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साँस में साजना हवा की तरह
साँस का सिलसिला हवा से है
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उम्रों के बुझते मामूरे में
मैं ने हर लम्हा तुझ को सोचा
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पाटी हैं हम ने बिफरी चनाबें तिरे लिए
हम ले गए हैं तुझ को स्वयंवर से जीत के
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तो शराफ़तों का मक़ाम है तो सदाक़तों का दवाम है
जहाँ फ़र्क़-ए-शाह-ओ-गदा नहीं तिरे दीन का वो निज़ाम है
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खिले धान खिलखिला कर पड़े नद्दियों में नाके
घनी ख़ुशबुओं से महके मिरे देस के इलाक़े
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पुस्तकों में प्रानों में अर्ज़ों में आसमानों में
एक नाम की भगती एक क़ौल का कलिमा
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दरिया पे टीकरी से परे ख़ानक़ाह थी
तब तेरे मेरे प्यार की दुनिया गवाह थी
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तले तेग़ के वो इबादतें तिरी शान की वो शहादतें
वो हिकायतें वो रिवायतें तिरे सारे घर पे सलाम है
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देखा क़द-ए-गुनाह पे जब इस को मुल्तफ़ित
बढ़ कर हद-ए-निगाह लगी उस को ढाँपने
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पाँव के नीचे सरकती हुई रीत
सर में मसनद की हवा बाक़ी है
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मजमा' नहीं मुजल्ला है अशआ'र की जगह
भर और कोई स्वाँग जो होना ही हूट है
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हिजरतों में हूजुरियों के जतन
पाँव को दूरियों ने घेरा है
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इक ख़ित्ता-ए-ख़ूँ में कहीं दरिया के किनारे
दीवार-ए-ज़माना से गिरा ध्यान फिसल कर
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चौखटा दिल का यहाँ है हू-ब-हू तुझ सा कोई
होंट भी आँखें भी छब ढब भी तुझी सा फ़ेस भी
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संगत दिलों की जीवनों मरणों का इर्तिबात
फिर डर पड़ा था क्या तुझे गिर्द-ओ-नवाह का
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