नय्यर सुल्तानपुरी
ग़ज़ल 4
अशआर 4
पहुँचा न था यक़ीन की मंज़िल पे मैं अभी
मेरा ख़याल मुझ से भी आगे निकल गया
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बढ़ने लगी यक़ीन ओ गुमाँ में जो कश्मकश
व'अदा भी सुब्ह ओ शाम पे टलता चला गया
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सीने पे कितने दाग़ लिए फिर रहा हूँ मैं
ज़ख़्मों का एक बाग़ लिए फिर रहा हूँ मैं
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दी है 'नय्यर' मुझ को साक़ी ने ये कैसी ख़ास मय
सब की नज़रें उठ रही हैं मेरे साग़र की तरफ़
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