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परवीन कुमार अश्क

1951 | पठानकोट, भारत

परवीन कुमार अश्क

ग़ज़ल 13

अशआर 5

फलदार था तो गाँव उसे पूजता रहा

सूखा तो क़त्ल हो गया वो बे-ज़बाँ दरख़्त

ज़मीं को ख़ुदा वो ज़लज़ला दे

निशाँ तक सरहदों के जो मिटा दे

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किसी किसी को थमाता है चाबियाँ घर की

ख़ुदा हर एक को अपना पता नहीं देता

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हवेलियाँ भी हैं कारें भी कार-ख़ाने भी

बस आदमी की कमी देखता हूँ शहरों में

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समुंदर आँख से ओझल ज़रा नहीं होता

नदी को डर किसी चट्टान का नहीं होता

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