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परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़

1866 | दिल्ली, भारत

क्लासिकी दौर के नुमायाँ शायरों में से एक

क्लासिकी दौर के नुमायाँ शायरों में से एक

परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़

ग़ज़ल 42

अशआर 39

आबदीदा हो के वो आपस में कहना अलविदा'अ

उस की कम मेरी सिवा आवाज़ भर्राई हुई

ज़ाहिद सँभल ग़ुरूर ख़ुदा को नहीं पसंद

फ़र्श-ए-ज़मीं पे पाँव दिमाग़ आसमान पर

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मख़्लूक़ को तुम्हारी मोहब्बत में बुतो

ईमान का ख़याल इस्लाम का लिहाज़

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वो ही आसान करेगा मिरी दुश्वारी को

जिस ने दुश्वार किया है मिरी आसानी को

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गर आप पहले रिश्ता-ए-उल्फ़त तोड़ते

मर मिट के हम भी ख़ैर निभाते किसी तरह

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पुस्तकें 3

 

ऑडियो 5

करेंगे ज़ुल्म दुनिया पर ये बुत और आसमाँ कब तक

किसी की किसी को मोहब्बत नहीं है

न आया कर के व'अदा वस्ल का इक़रार था क्या था

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