क़द्र ओरैज़ी
ग़ज़ल 16
अशआर 11
जिस को ख़ुद अपना ए'तिबार न हो
ऐसे इंसाँ का ए'तिबार न कर
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लोग तुझ को हक़ीर समझेंगे
हद से ज़ाइद भी इंकिसार न कर
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बे-रब्तियों ने 'क़द्र' मिटाई जो रब्त की
है गोश्त को भी अपने न अब उस्तुख़्वाँ से रब्त
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दुनिया को हम से काम न दुनिया से हम को काम
ख़ातिर से तेरी रखते हैं सारे-जहाँ से रब्त
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तोड़ा नहीं जा सकता पैमान मोहब्बत का
नुक़सान ख़ुद अपना है नुक़सान मोहब्बत का
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